उन्मनी वाङमय

श्लोक ११ ते १८

‘शं’ ‘लं’ ‘रं’ हे बीजत्रय।

‘ऍं’ ‘क्लीं’ ‘वषट’ ‘‌ह्रीं’ चतुष्पादन्याय।

जेथ व्यक्तला श्रीविद्याकाय।

नवात्मलेला श्रीनवहेत! ।। ।।११।।

 

कृत्तिकेचे कुशलात्म तेज।

अगस्ति भानाचें एकाधिक शतांश बीज।

अवधूत देहाचें संकल्प-ओज।

महास्फूर्ति ही!  ।। ।।१२।।

 

दीधीतांचा समन्वय।

संज्ञान- विभावनांचा संचय।

विश्वचितिचें भान हिरण्मय।

प्रकटवीन अरुपत:!   ।। ।।१३।।

 

दाखवीन उफराटे शिंपले।

फेकीन बोथटलेले भाले।

चेववीन निरर्थक निष्प्रभ बोलें।

उमगा नव संहिता ही!  ।। ।।१४।।

 

स्मशान मृत्तिकेंत अमृतत्त्व लपवूं।

इंद्रियग्रामांत महाजीवन छपवूं।

जागृतंमन्यास शब्दलीलया ठकवूं।

श्याम पुरीचे ठकसेन आम्ही!  ।। ।।१५।।

 

महाजागराचा क्षणोन्मेष।

देईल माझा शब्दश्रीस्पर्श।

मोकलील कोटिजन्मांचे कारण कोश।

दुग्ध विधान माझें!।। ।।१६।।

 

हेम मात्रेचा एक एक वळसा।

महाद्यूताचा एक एक फासा।

‘ऋत’ कलेचा एक एक ठसा।

उठवीन अभावितपणें!  ।। ।।१७।।

 

संध्याकाळी ०७.४२

 

अवधूत गान जन्मवील श्रुतिशक्ति।

अवधूत दर्शन हें जन्मवील अभिनव दृष्टी।

अवधूत देह हा सजवील नवभूत सृष्टी।

संकल्पशास्त्र हें दत्त - गुह्य!  ।। ।।१८।।

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