उन्मनी वाङमय

श्लोक १ ते १०

सकाळी ०९.००

 

विकार केंद्रें नका आच्छादूं।

स्वयंपूर्ण संवित् नका संबंधू।

रजतस्वप्न हें नका तुम्ही रंध्रूं।

अहंवृत्तीच्या शलाकेनें!  ।। ।।१।।

 

उन्मादक हा चंद्रिकारस।

महाजीवनाचें पिसाट साहस।

लौकिक जागृतीला विषग्रास।

स्वप्नस्थितींत या   ।। ।।२।।

 

हिरवें विष हें ‘पिंगला’ दंशाचें।

स्मशान रक्षा ही अंतर्व्योम्नीनाचें।

प्रेत कीं  व्यतिरेक-व्यवहाराचें।

पुनर्जीवे विषस्पर्शें!  ।। ।।३।।

 

जांभळया होऊं द्या नसानसा।

विषबाधेचा आदरा हा संपूर्ण ठसा।

अहंवृत्तीस नाग दंशें डसा।

‘नाग’ म्हणजे प्रज्ञास्फुरत्ता!    ।। ।।४।.

 

अनेकजन्मीं झालो ‘शहाणे शहाणे’।

आता क्षणैक ‘पागल’ होऊनी पाहणें।

जग जगूनी थकलो क्षणैक आतां मरणें।

भोगूं या महानंदी!  ।। ।।५।।

 

पाह पाहिली विणलेली दृष्टी

क्षणैक अंधवू या माजलेली दृष्टी।

भिजभिजलो पावसांत, क्षणैक अग्निवृष्टी।

त्वग् देहास आलिंगवू!  ।। ।।६।।

 

सकाळी ०९.२९

 

‘अन्नादे’ ची अनुभविली आशीर्वचनें।

परि आज जठरें लिंपूं भस्म धुलीनें।

मातकणली सुदैवें अष्टावसुधनें।

प्रयोग हा स्वेच्छिलेला!  ।। ।।७।।

 

जय श्रिये! अकिंचन ते विभव विशेषे।

वसुश्रेष्ठे! वसिष्ठे। धुलि वेषे।

आर्ति देहे दु:खाश्रु स्वरूप प्रहर्षे।

विराग विभवे! नमन तुला!  ।। ।।८।।

 

मणी मणी फेकूनी संपवू निधी।

मोती मोती हुडकू दरिद्रवू उदधी।

कमल कमल खुडून स्वच्छवूं नदी।

विराग विधान आचरूं हें!    ।। ।।९।।

 

सम्राट ओळखूं भिकारडयांत।

राज्यश्री सांभाळू ‘मृत्तिका’ प्रसादांत।

महामोद अनुभवूं स्वपर वेदनेंत।

विराग विधान हें आचरूं   ।। ।।१०।।

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