उन्मनी वाङमय

श्लोक १ ते १०

संध्याकाळी ०६.४०

 

स्वस्ति श्रिये! स्फुरत्ते।संवित् स्वरूपिणी।

सत् ते भास्वरे संकर्षिणि।

महाशून्यज - अवधूत श्रुति वर्षिणि।

नमोsस्तुते,नमोsस्तुते! ।। ।।१।।

 

त्रिपदा माझी ‘श्री’ शब्द गायत्री।

सकलप्रलयाकल,विज्ञानकेवलही त्रिमूर्ति।

जणुं त्रिगुणलेली माझी स्वात्मरति।

उपासनात्रय विलोच हें  ।। ।।२।।

 

विज्ञान केवलाची हिरण्य श्रेणी।

लुक्लुके श्रीमहाशून्य व्योम्नीं।

प्रकाशांश स्वरूपती अवधूतगानीं।

तेजनाद संयोग हा!  ।। ।।३।।

 

तेज तें स्वानुभूति साठीं।

आणि नाद जीवसख्यांच्या कर्णसंपुटी।

मीलनाविष्कार ही उत्कर्षखटपटी।

विश्वकार्य हें  ।। ।।४।।

 

देखिलें - तेज, डोळवूं तुम्हां।

चाखिला - सुधाबिंदू, ओष्ठवूं सर्वा।

भोगिला संविद् लेश् जीवसखे! घ्यावा!

आणि द्यावा पुन: पुन:  ।। ।।५।।

 

प्रश्नचिन्ह स्पष्टवा जीवनार्थांचे।

उद्गार चिन्ह उमटवा अमृतत्त्व आशेचें।

संबोधन ऐका श्रीअवधूतनादाचें।

संबोध हीच वाक्य वृत्ति!  ।। ।।६।।

 

संबोधन नादाची उभावणी।

जणुं कीं पूर्ण विरामली महावाक्य वाणी।

कोटिकल्पवरुषें निजेल्यांची चेववणी।

स्वस्तिदा! ही सरस्वस्ती !  ।। ।।७।।

 

संध्याकाळी ०७.२२

 

उत्तिष्ठत! सौषुप्त्ल्या जीवकुलांनो।

जाग्रत उत्संगलेल्या लडिवाळांनो।

निबोधत! अवधूत गुह्य हें स्वस्ति स्वीकृतांनो।

स्वस्तिस्थ जीवांनो! स्वस्तिवाक् तुम्हां!  ।। ।।८।।

 

गौरिशंकरलेली प्रज्ञास्थंडिलें!

प्रज्वालय तूं  महाज्वाले!।

महानुभूतींत रसलेले।

तत्त्वसंदेश उधळींत ये!  ।। ।।९।।

 

संध्याकाळी ०७.४० ते ०७.४३

 

स्थित - स्थित प्रज्ञेसी संचलन।

पुष्ट-पुष्ट अहंकारासि उन्मुळवी।

धूत धूत चिन्मौक्तिकांसि संकलवी।

अवधूतराज मी!  ।। ।।१०।।

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