४१-६०

४१-६०

(१-१०-१९३८)

 

कृत कृत्यली ध्यान मुद्रा।

भरती लोटली सौख्य समुद्रा।

अवतरली ब्रम्हमुखें ललिता श्रीभद्रा।

अष्टमी नवात्मली   ।। ।।४१।।

   

नवललेंलें नव नवगीत।

फुलवलेली गुज गुजरीत।

पुत्रवलेली दांपत्यप्रीत।

शिरोधार्य ही!   ।। ।।४२।।

   

आज श्रंगारगृह समरलें।

आज कूटस्थ शरीरलें।

आज पेंगू स्थूल भरारलें।

महाकारणीं   ।। ।।४३।।

   

आतां सांगू! सफळलें गुरूप्रेम।

आतां भोगूं गुलाबलेलें जीवक्षेम।

आतां ओळखूं श्रीसंचिताचे नेमानेभ।

महद्भाग्य आपुलें  ।। ।।४४।।

   

जय जय! अलख नाथा! सर्वंकषा।

जय जय! महाविभो! अंवकाशवेषा।

जय जय! निरंतरा! व्याम विशेषा!।

जय  स्वस्ति! परंव्येामन् ।। ।।४५।।

   

रूतलेला काढिला काटा।

वनलेल्या देशीं फोडिल्या वाटा।

रितलेल्या पात्रीं केला  साठा।

आज अमृत वर्षाव   ।।          ।।४६।।

   

गुंतलेल्या देह पाकळया।

निरगोठोनि एकदामनीं गंुफल्या।

उचलिल्या मुक्तिशिंपल्या।

जीव समुद्रांतुनी   ।।          ।।४७।।

   

हेरलें निरखिलें मौक्तिकांचे पाणी।

वाजविली नादविली जीवतत्त्वांची नाणीं।

पाणविली गूढ प्राकृत वाणी।

नंतरी कथिली वाक्य वृत्ती   ।। ।।४८।।

   

कर्तृपद येथें एकमात्र।

कर्मपद विस्तरले सर्वत्र।

त्यांत गुंतलेले जीवजात।

मोकलूं! कर्ते आम्ही!   ।। ।।४९।।

   

स्वतंत्र: कर्ता मी एकाकी।

कर्मसारें कर्ते लौकिकीं।

आरूढतें माझ्या सत्तानौकीं।

गुणोदधींतील नौकाविहार हा   ।। ।।५०।।

 

(२-१०-३८)

(म्हणवूनी मज लेकुरवाचेनि बोलें। तुमचें कृपाळूपण निदैलें।तें चेइलें जी जाणवले या लागीं बोलिलो मी)

व्यक्तवा तुमचा नाजुक हस्त।

झेला! अनुभूतीचे पारिजात।

हळुवारंपणें उन्मीलित।

होंतसे पाकळी पाकळी   ।। ।।५१।।

   

अनुभूति नव्हें ऍंद्रियज्ञान।

नास्ति पुन: ऐंद्रियज्ञानांचें समीकरण।

तेथ भंगविणें वृत्तिदर्पण।

वस्तुप्रतीतींत   ।।           ।।५२।।

   

फुटल्या आरशांत देखरूप।

वृत्तिवैधव्यांत शृंगारवा आत्मरति सौख्य।

वांझेल्या इच्छा भामिनीचें पुत्रकौतुक।

त्या नांव अनुभूती!   ।। ।।५३।।

   

न कदां शोधा प्रमाण।

डोळवा अनुभूतीचें स्वयंप्रकाशन।

आर्ति आणि निदान।

मूलत: एकस्वरूप   ।।          ।।५४।।

   

जीवन आणि अनुभूती।

एकसमयें उत्स्फूर्तती।

तेथली खूण जीवन्मुक्ती।

अवधूत गुह्य हें  ।।          ।।५५।।

   

जीवनवा अनुभूतीस क्षणोक्षणीं।

व्यक्तवा महाबिंब नेत्रदर्पणीं।

निर्झरला महानदू आत्मजीवनीं।

समुद्रवा अनुभूती बिंदूला   ।। ।।५६।।

   

महाजीवनाच्या समुद्रपृष्ठीं।

श्यामवृत्ती बिंबेल गोमटी।

अनुभूति `तुका सदेह वैकुं ठीं'।

सहजें विराजेल!   ।।          ।।५७।।

   

सत्त्ववृत्ती पांढरी पंढरी।

मृत्तिकलेली जणुं वैकुंठपुरी।

अभंगमाला सुवर्णाक्षरी।

तेथ बिंबले श्यामस्वरूप!   ।। ।।५८।।

   

आज उलटली इंद्रायणी!।

ऊर्ध्वली, उत्स्फूर्तली गिरिनारशरणीं।

भक्तिभाव नाथले उद्गीथ गगनीं।

अनिरूद्ध संप्रदाय हा!  ।। ।।५९।।

   

`उद्गीथ विद्ये`! श्रुति परायणे!।

येथ मूर्तलीस भक्तिसुखगानें!।

येथली कर्मविधानें।

अति अति सुलभ!   ।। ।।६०।।

 

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