२१-४०

२१-४०

(१-१०-१९३८)

 

अंतर्मुखवितां चक्षुतेज।

ब्रम्हरसवितां पौरूष ओज।

सुशब्दवितां श्रीरत्नगुज।

प्रसन्नली श्री ललिता   ।। ।।२१।।

   

व्यामबीजें लतावली।

वेलतत्त्वें कथावली।

सनातन ऋतें पंथावली।

श्रीसंहितेंत या!  ।। ।।२२।।

   

`श्रीसंहिता' माझें नाम।

अद्ययुगीचा मी महाधर्म।

मानव्याचा कोटिकुलांचें साक्षात् शर्म।

ही तत्त्व मंजरी   ।। ।।२३।।

   

जय श्रिये! स्वस्तिश्रिये! श्रीसंहिते!।

व्योम जान्हवीच्या अवधूतें।

अनागत कालविभूच्या व्याकृते।

महागुहेंतील महायोगिनि   ।। ।।२४।।

   

अष्ट समृद्धी वोळंगल्या।

षोड्श कला ज्योती तरंगल्या।

पूर्वजन्मानुभूती संगतल्या।

मधुमेळव सुधाजलांत या   ।। ।।२५।।

   

ये, थांब, चुकल्या वाटसरा।

नीलनीड विसरल्या पांखरा।

श्री कामधेनूच्या वासरा।

चाख, चाखा भरली ओटी   ।। ।।२६।।

   

युगनाट्य प्रारंभिले येथ।

ब्राम्हण देहाच्या रंगभूमींत।

स्वात्म, प्रकाशाचा माध्यान्य संतत।

पेटला येथे  ।। ।।२७।।

   

पोळतील पाय येथल्या धुलींत।

सोलतील त्वचा असल्या परिसरांत।

खोलतील परि, तेजोविश्वें अज्ञांत।

नाटिकेंत या!   ।। ।।२८।।

   

नटेश्वराचें कौतुक तांडव।

भेकडां भासेल भीषण - भैरव।

परि तेथ मंजु मंजुल ललितारव।

विलोका कुशल दृशा   ।। ।।२९।।

   

येथील नाट्य अद्भुत उलटें।

येथिला नट वस्तुतेंत नटे।

येथ सफेतलें मुखवटे।

स्वच्छवीन शब्द स्पर्शे  ।। ।।३०।।

   

मानवतेच्या मुखीं रेांगण घनदाट।

चित्तीं ओळंबले तिमिर मेघ विराट।

भिनला विखार सूक्ष्म देही कांठोकाठ।

नाट्यगुणें जीववीन तया  ।। ।।३१।।

   

ओळखलें माझें इंगित।

उकलिलें माझे नाट्यतंत्र।

व्यक्तविलें माझें गुह्यचरित्र।

बलात् त्याग प्रेम बलें  ।। ।।३२।।

   

भीतरीं उलटलेली सर्पिणी।

सूक्ष्मलेली आशा कृपाकांक्षिणी।

स्थिरीकुरू स्थिरीभव महाधाम्नि।

ममाज्ञया! स्वस्ति श्रिया!   ।। ।।३३।।

   

सदातनला स्मशान रेणू।

दुभली, अंचुळली श्रीकाम धेनू।

श्रुतिध्वनली कृष्णाधरिची शब्द वेणू।

महन् मंगलाष्टमी ही   ।। ।।३४।।

   

कर्मभावास श्रीरंगीं रंगवा।

अहंभावास अनंततेंत भंगवा।

जीवनास नटेश्वरांत संगवा।

नव नट नाट्य आरंभिले ।। ।।३५।।

   

जय स्वामिन्! नवात्मने।

मज मौलिल आदिनाथ आज्ञें।

हांसलात विराट आनंदे।

शिरोधारण सुकौतुक हें होय!   ।। ।।३६।।

   

हेतला माझा जीव भाव।

अस्तु घेतला शीर्षीं 'ब्राम्हणराव'।

ज्यानें केला गुलाब वर्षाव।

कूटस्थ केंद्रीं माझ्या!  ।। ।।३७।।

   

आमुची ही गुलाब गोंठी।

खोलली जाण कोणासाठीं।

जगदवंद्य ब्रम्हनाद ओष्ठीं।

सदैव नाचे माझ्या  ।। ।।३८।।

   

श्रद्धस्व! श्रद्धस्व वंद्य वंदा।

ज्ञहि! ज्ञहि! वेद्य वदां।

नाचूं पिकवूं महानंदा।

अद्भुतजा ही रंगभूमी   ।। ।।३९।।

   

महाकारणांचा अभिनय।

लोकेश्वरांचें सत्तासौभाग्य।

अनंत मानव्याचा माऊली उत्संग।

माझा गुरू ब्रम्ह देह  ।। ।।४०।।

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