१-२०

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(१-१०-३८)

 

नीड अश्वत्थ शाखेंतलें।

मेघादृशा सुस्पष्ट अवलोकिलें।

प्रकाश रश्मींत गुंफले।

देहजाल त्याचे ।।    ।।१।।

   

तया अश्वत्थाचें शिरीं।

विराजे दीपमाला परावैखरी।

ते दीप स्नेहाळले सामस्वरी।

जय जय! स्वरसरस्वती! ।।२।।

   

साष्टांग देहाची अष्टमी माला।

तुरीय यौवनाची किशोरी बाला।

श्रीमन् - महालक्ष्मी श्यामला।

बुला व बली येथे ।। ।।३।।

   

स्वाराज्य मंडपलें अनुभूतींत।

साक्षित्त्व सांठलें अनुवृत्तींत।

पीठस्थले जीव अनुग्रहीत।

घबाड मुहूर्त हा!  ।। ।।४।।

   

येथ भविष्य भूतला।

येथ सौषुप्त् जागरला।

येथ आत्मदेव मृत्तिकला।

लक्ष्मी संपुटीं   ।। ।।५।।

   

दैनंदिन संवर्त आकारले।

भग्न सभामंडप प्राकारलें।

येथ विषय भोग साखरला।

आत्मरसीं   ।। ।।६।।

   

विषयमात्र एक दिव्य दर्पण।

पाठ मोरल्या रूपा जडत्त्व अभिधान।

सन्मुखल्या तेथ महाचितिदर्शन।

श्रीविद्येंतिल गुह्यराज हा   ।। ।।७।।

   

पंचविषयांचे पंचस्वर।

येथ महामुरलीचें रत्न मखर।

तेथ पुष्पली श्रीशारदा अमर।

जय अलख! मखर शोभा   ।। ।।८।।

   

आत्मअनात्म एक बिंबलें।

कन्या पुत्रका एक गर्भ।

मांगल्य अशौची एकदर्भ।

सूत्रात्मत्त्व ओळख आंतरदृशा   ।। ।।९।।

   

विषया विषयांत ज्योतिर्भाव स्फूर्तला।

पुष्पा पुष्पांत सौरभ निर्झरला।

ताऱ्या ताऱ्यांत निशादीप तेजाळला।

ललिता लास्य हे  ।। ।।१०।।

   

षट् चक्रांचे षड्दर्शन।

सहस्त्रारीं एकवटलें अभिन्न।

कोटिस्वरांचें सामनादन।

मुरलींत या!   ।। ।।११।।

   

महाशक्तीचें नि:शब्द ज्ञापन।

महाभक्तीचे निर्भाव ख्यापन।

लोेकेश्वर यज्ञंाचें उद्यापन।

क्षीरावल्या अनाहत चक्री   ।। ।।१२।।

   

अनाहनांतून ओघळले नीर।

मणिपुरांतून उद्ध्वस्तला समीर।

मूलाधार पंजरीं बोबडला कीर।

श्रुति पडसाद तो  ।। ।।१३।।

   

मरण डोळिलें कारण दृष्ट्या।

सप्त्लोक धवलिले शब्दसृष्ट्या।

महेश परमेष्टिलें नाथित व्यष्ट्या।

स्वस्ति कुशलं! स्वस्ति कुशलम्  ।। ।।१४।।

   

व्याकृतींत लपण्याचे राजगुज।

दुग्धांत निरण्याचे राजबीज।

स्मशांनी अमृतण्याची गुलाबशेज।

ललिता श्रुती ही  ।। ।।१५।।

   

सहस्त्र जन्मांचे चित्रपट।

सहस्त्र देहांचे मृत्तिका घट।

सहस्त्र रंगभूंचे बिनटले नट।

श्रीसदनीं अतिथले!  ।। ।।१६।।

   

मिटेल्या नेत्रगर्भ कोशीं।

गुलाब प्रफुल्लला एक अविनाशी।

श्याम मूर्तला ललितावकाशीं।

जय जय! श्याम ललित्या   ।। ।।१७।।

   

`ऱ्हीं` `क्लीं` `श्रीं' त्रिनेत्रित  श्रुती।

`यं' `रं' `हं` त्रिमूर्तली अदिती।

त्रिवषट् त्रिलयली श्रीस्थिती।

परमोत्कर्ष विद्युत् गतया   ।। ।।१८।।

   

निशेला घाली सूर्यस्नान।

अंधतेस उपजवीं दृक - प्रज्ञान।

कलंकितेस वोपी श्रीज्ञान।

महामंगल जतन करा!   ।। ।।१९।।

   

कोलाहल विषय विश्वाचा।

हीच श्रीविद्येची उफराटी वाचा।

येथ विलास - वैराग्याचा।

समन्वय सिद्धला   ।। ।।२०।।

 

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