उन्मनी वाङमय

माझ्या नि:शब्दी उमटल्या श्रुती। आणि समाधिभावांत प्रस्फुरल्या कृती।

११-८-४१

 

`शास्त्र आमुचें `संयुद्वाम'।

उकिरड्यांत आमुचें धाम।

चितितेज आमुचें घन:श्याम।

चिमुटरक्षेंत अष्टावसू!  ।।          ।।१।।    

 

माझ्या नि:शब्दी उमटल्या श्रुती।

आणि समाधिभावांत प्रस्फुरल्या कृती।

लत्ता प्रहारीं आमुच्या प्रणती।

मृत्यूंत देखा महाजीवन!।।          ।।२।।    

 

तारक झुंबरलें उफराट्या नभीं।

जातमात्र पुन:प्रवेशलें मातृगर्भीं।(प्रसाद सिद्धि प्रकटली कीं प्रारंभी।)

सिद्धि प्रसाद प्रकटला कीं प्रारंभी।

मूळासि पळ लागलें! ।।            ।।३।।    

 

स्मशानीं टांगले नवजातांचे पाळणे।

श्रवणांतून उद्भवले लोकनाथांचें `गोविंद' गाणें।

आदिमाऊलीनें दिलें कीं आज बाळलेणें।

सिद्धबीजा मंत्रमूर्ती! ।।            ।।४।।    

 

फेसाळले सहस्त्रवीचीचे कल्लोळ। 

उफाळले दहराकाशीचे महातेजोगोल।

सन्मुखले समाधिसौभाग्याचे शांतिडोल।

नवमंजरींच्या सौरभें ।।            ।।५।।    

 

भस्मदेह साक्षात्कारला आवाहनें।

मंत्रदेह आकारला संविद्-ध्यानें!

शास्त्रदेह अवतीर्णला प्रज्वालितसंज्ञानें।

त्रिशूल हे आदिस्पर्शाचे!!! ।।          ।।६।।  

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