१९-७-३९
प्रत्यगनुभव हें स्वाराज्य।
ऐंद्रियभान हें घनिष्ठ आज्य।
साक्षित्वभू हें परवैराज्य।
त्रिदळ हें निजरूप साधना ।। ।।१।।
प्रत्यगनुभवी स्वानंद बुदबुदला।
पदार्थप्रतीतींने बलिष्टली स्वस्वरूपमहाज्वाला।
कूटस्थ - निवृत्ति - प्रकाश प्रभातला।
अधिष्ठानीं प्रमातृबिंदूच्या! ।। ।।२।।
कर्तृत्व कर्तृगुणें काळवंडलें।
द्रष्टृत्व दृश्यसापेक्षतया विषयाकारलें।
प्रमातृत्व प्रमाणत्रिपुटींत त्रिभग्नलें।
साक्षित्वमात्र स्वालंबसंस्थान ।। ।।३।।
साक्षिभान हें स्वस्वरूप श्रियाळ।
प्रमातृभान हें बुद्धिरिंद्रियस्थान ऱ्हियाळ।
कर्तृभान हें विस्मृति विशेषक क्लिऱ्याळ।
गुजत्रयांत पुन: एक गूज! ।। ।।४।।
त्रसरेणू ही कैवल्याणूचे त्रिनेत्र।
संधिकला कीं प्रकाशली पूर्व पश्चिमज्ञप्तींत।
ज्ञप्त्रूिपता निर्विशेषली स्वरूपसंवित्तेच्या स्फुरद्धारेंत।
`महानंद'भा साक्षात्कुरू! ।। ।।५।।
फुलल्या सहस्त्राराच्या नीलपाकुळया।
उमलल्या साक्षिचैतन्याच्या गुल्कळया।
शोभल्या सु-वर्णबालेच्या सोनसाखळया।
``श्रीवषट्कार'' माध्यान्हला! ।। ।।६।।
स्वस्ति! सावित्रि! नमस्तुभ्यं नाथशरण्ये!।
स्वस्ति आद्ये! श्रुतिमातर्! संविद्वदान्ये!।
प्रत्यग्वति! स्वयंस्वप्रभे! `श्रीमह:संज्ञे!
नवयुगोषस्स्वे! युगसाक्षिणि!।। ।।७।।
``चिकितुषी प्रथमा%हं यज्ञियानाम्।
तां मा देवा व्यदधु: पुरूत्रा।
भूरिस्थात्रां भूरि आवेशयंतीम्।''
स्वस्ति! स्वस्थे! संयदवाम्नि!।
स्वस्ति! सुस्थे! श्रीबिंदुकूट धाम्नि!।
स्वस्ति! निरवस्थे! `न्यवमङ' नाम्नि!
गूढगर्भे! `गुं' गूढबीजे! ।। ।।८।।
''$ म: तदादेर्वरेण्यं भर्गो नाथस्य धीमहि।
ऱ्हियो यो न: प्रसादयेत्।
श्रियो यो न: प्रवर्धयेत् । $ तत्सत्``।