उन्मनी वाङमय

`शंकरदास' म्हणे। प्रभुकृपेनें `आत्मज्ञान' झालें।

१६-७-३९

 

``औट पीठ शिखरींचा हीरक।

भ्रमर गुंफेतल्या नीलबिंदूचा प्रकाशक।

पीतावृत्त वेंचलेंलें धवल मौक्तिक।

श्रीहाटींचें व्यापारद्रव्य हें ।।        ।।१।।    

 

स्थूलाचें माप औटमात्र।

सूक्ष्माचा व्याप अंगुष्ठगात्र।

अर्धाकार अंगुलिरूपाचें कारणपात्र।

महाकारण मसूरिका ।।        ।।२।।    

 

अवकाशदेह अतिकारणाचा।

नीलबिंदू हा मातृदेह संविद्प्रेरणेचा।

'शं' शैल श्यामशरण्याचा।

त्रिकूट हें त्रिपुरसौदर्य!।।                ।।३।।    

 

नाथगायत्रीचा औट पाद अर्थदेह।

अर्धमात्रान्वित आकारलाकी स्वयंप्रणव।

ओळखणें सहस्त्रयुगींचें निमिषपर्व।

प्रणवदर्शन हें सहस्त्रपात्! ।।            ।।४।।    

 

भजनरंग प्रेमीं। माउली प्रगटली।

भजन रंगीं रंगिलें।

निजरंग दावीलें! निवृत्तिकृपेनें।

विठ्ठल रूप दावीलें। माऊलीला।।

`शंकरदास' म्हणे। प्रभुकृपेनें `आत्मज्ञान' झालें।

(रामदास) प्रभूचा दास। संचित क्रियमाण इरे (विरे)।

त्याचा भार कोणवर नाहीं! नाचविता धनी वेगळाचि।

नटनाटकी तूं प्रभू। शंकरदास पदीं नमितो।।

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