१५-७-३९
'सिद्ध' म्हणजे संवित् स्पर्शें 'चेकाळला अवधूत।
पिउनी पवनबीज थैमानला उन्मत्त।
उफराट्या पाउलीं उधळीत श्रीराजपंथ।
चाले, उभवी धूलिमेघ! ।। ।। २।।
धूलिमेघांत त्या उमटलेली इंद्रधनु।
तेथ बिंबे चिद्विकसनाची भविष्यत्तनु।
संचरे प्रतिप्रतीतींत उन्मनु।
पंथधूलि उद्वर्ततां ।। ।।३।।
स्वस्ति धूलि! करूं या धूलिवंदना।
स्वस्ति सिद्ध!आचरूं या निरवस्थ जीवना।
स्वस्ति इंद्रधनु! संचरूं या बिंबवीत प्रत्यक्चेतना।
वियत्कायाच्या नीलावकाशीं! ।। ।।४।।