१७-४-३९
परेंत प्रस्फुटलें जांभळे गुह्य।
अवस्थांचा अनुभवला अधिष्ठान प्रलय।
सहज कीं साधला सोज्ज्वळ संपराय।
गर्भागाराचें महाद्वार हें ।। ।।१।।
येथून श्यामशून्याचा वर्तुलविस्तार।
येथ बीजश्री तुरीयाकार।
सुवर्णाचे उंचावले चारमिनार।
श्रीश्रेष्ठांचा सभामंडप हा! ।। ।।२।।
त्रिदेहांच्या संमीलित अस्थी।
अवस्थात्रयाची चांदलेली चतुर्थी।
प्रेमकलेची पौर्णिमलेली परानुरक्ती।
प्रसादचिन्ह हें विभूतिद्रव्य! ।। ।।३।।
परेंत परावर्तलेला परंप्रकाश।
संख्येंत स्थूलाकारला शून्यविलास।
योगिप्रत्यक्षाचा उत्कट उल्हास।
महानुभाव हा तुरीयस्थ ।। ।।४।।
पुष्कर तीर्थांत या पोहणारे मत्स्य।
महाकारणींचे हे महानुभावी देहस्थ।
परामाउलीचें हें गोजिरवाणें वत्स।
`वं` `मं' `शं' ही त्रिपुटी! ।। ।।५।।
उत्कर्षलेले उदात्त भाव।
उत्तुंगलेली चैतन्यजलींची नांव।
मौलिक महामूल्यांचा मेळाव।
`परा' कोटींत स्वयंस्पष्ट ।। ।।६।।
परेच्या गर्भकोशांत फुलेला गंध।
महाकारण कुशींत जन्मलेला समीर मंद।
तुरीय कुहरांत नादला आदेश स्वच्छंद।।
संविद्-स्थितीचा प्रसिद्ध प्रस्ताव!।। ।।७।।
स्वस्ति! श्रिये! परे! स्थूलोत्तमे!।
संवित् प्रवेशिके, श्रीसुवर्णसंगमे।
अकालस्थे, अस्थलस्थे, स्वरूपव्योम्ने।
साक्षित्वस्वामिनि! महाराज्ञि!।। ।।८।।