२६-४-१९३९
आतां खेळणें रंगपंचमी।
अतीततेच्या निराकारधामीं।
येथ श्रीसत्ता सार्वभौमी।
अंतर्विश्वांत तुरीयोत्तरीच्या ।। ।।१।।
येथल्या श्रियाळ गर्भागारीं।
चतुरंगस्नातांस खुलास वावरी।
येथ खुणविते श्याम-गोपुरी।
हळुवार वर्णस्मिते!।। ।।२।।
त्रिदळाचें हें पहिलें पान।
$काराचें वा अकार-प्रकटन।
त्रिनेत्राचें आदिम उन्मीलन।
सूक्ष्मा ही अंतर्बीजश्रेणी ।। ।।३।।
स्नात स्थूलांस येथ अभ्यवादन।
श्रीसूक्ष्मेचें सालंकृत आशीर्वचन।
व्यक्ताकारला ऊर्जस्वल उदान।
स्नातल्या स्वर्णदेहीं!।। ।।४।।
अणु, भेद, आणि कर्म।
पशु त्रयाचें अंत:स्वरूप सूक्ष्म।
सूक्ष्मा श्रेणींत त्यांचा सहज संयम।
मृत्युरेव अमृतत्त्वं तेषाम् ।। ।।५।।
`अणु' म्हणजे घनवटलें अज्ञान।
संमीलित जेथ विक्षेप अन् आवरण।
महाशक्ति ही मूलोपादान।
स्थूल प्राकृतिक विश्वाचें ।। ।।६।।
मल पर्वत हा अनंतसंचितांचा ।
ढिगार कीं निश्चेष्ट प्रेतांचा।
उकिरडा वा अकुशल कोशांचा।
अणु हा आदिम पशु ।। ।।७।।
`भेद' हा द्वितीय महाबली।
अकुशलांची काटिप्रसू महामाउली।
अभेदभानाची शबलित सावली।
बंधन हेतु भेदग्रह हा ।। ।।८।।
विवर्त, परिणाम, वा भ्रम।
भेद-प्रतीति तेथलें मूलवर्म।
व्यतिरेक बुद्धि हा सहजधर्म।
भेदग्रह भूमिस्थांचा ।। ।।९।।
सहजमुक्ततेंत भेदग्रह अद्वैतले।
कुशला संस्कृतींत अंध:कार प्रभातले।
देहो%हं भाव स्वरूपावस्थेंत सनाथले।
पशुयज्ञ हा महासंस्कार! ।। ।।१०।।
`कर्म' हें तृतीय पशुभावन।
स्थलकालांचें जेथ संयुक्तावरण।
संचितजन्य हेतांचें प्रत्यक्षनिष्पादन।
संसृतीचें कूर्मपृष्ठ! ।। ।।११।।
एकादश इंद्रियांत विभागलेला।
पशुत्रिमूर्ति हा सर्वत्र विराटलेला।
`सूक्ष्मा' वस्थेंत विधानत: विनष्टलेला।
संहार येथ पुन:सृष्टिहेतु ।। ।।१२।।
सूक्ष्मा श्रेणी ही पशुहत्त्यांचें स्थंडिल।
येथल्या निष्कुहेंत जन्मे `श्रीसंवित्चंडोल'।
येथ प्रतिध्वाने निरवस्थेचा साखरबोल।
सुखडोल येथ स्वं स्वं स्वं चा! ।। ।।१३।।
येथल्या हत्त्येंत अमृतत्त्वें संदेहती।
कुस्करल्या पाकळयांत सहस्त्रार प्रस्फुटती।
भंगल्या राऊळांत आदिआदेश निनादती।
स्वस्तिश्रिये! सूक्ष्में! स्व -स्वस्ती! ।। ।।१४।।