उन्मनी वाङमय

विक्षेप, कला, आवृति। राग, कालतत्त्व, नियति।

५-३-१९३९

 

विक्षेप, कला, आवृति।

राग, कालतत्त्व, नियति।

षट्-कंचुक हे षड्विलाससंपत्ति।

प्रथमांबेचें कोशागार  ।।          ।।१।।

   

`विक्षेप' शक्त्या अनुभूतिवैविध्य।

रसग्राह जो विषयतासिद्ध।

बहिर्विश्वाचा प्रतीतिनिष्ठसंबंध।

प्रथमांबेचें प्रथमांग  ।।                ।।२।।

  

`कला` म्हणजे रसग्रहचक्षु।

ग्रहीं ग्रहीं संचरणारा बेछूट भिक्षु।

अतिथि वा भावोत्कर्षलक्षु।

प्रथमांबेचा द्वितीय रश्मी  ।।          ।।३।।

   

`आवृति' म्हणजे अदर्शनतमिस्त्रा।

कलानुभूतीची आंधळी पिपासा।

वासनाविश्वींची चलत्चित्रदिदृक्षा।

प्रथमांबेचा तृतीयनेत्र हा! ।।     ।।४।।

   

`राग' म्हणजे चलत्चित्रदर्शन।

बध्द्यबंधाचें सिद्धानुसंधान।

संचितौघाचें पुनरावतरण।

प्रथमांबेची तुरीयकला  ।।         ।।५।।

   

संकलनाचा सहजव्यापार।

व्यक्तघटनांचें मूल निराकार।

स्थित्यंतराचा प्रकट साक्षात्कार।

`कालतत्त्व' पंचमपाद।।            ।।६।।

   

अणु अणुंस स्वस्थानावािप्त्।

देहादेहास यथासंस्कारसंगति।

जीवाजीवास यथाभाव स्वरूपावस्थिति।

नियतितत्त्व हें उत्तमांग! ।।            ।।७।।

   

षडैश्वर्याचें संयुक्तसंस्थान।

कुशलसंस्कृतींचें महाविंदान।

ऋद्धीसिद्धींचें मंगलायतन। 

अष्टभुजा ही हुताशना!  ।।          ।।८।।

   

प्रथमांबेचें हें षट्तत्त्वाशन।

जीवातिथींचें संयुक्तलेंलें भिक्षान्न।

स्वरूपज्वालेचें हुतिपूजा भरण।

प्रतीक विद्येंतील `हुताशन' हें! ।।      ।।९।।

 

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