उन्मनी वाङमय

कुहरीं कैलासलें कैवल्य गीत। ओंकार साम नादला ।।

२८-२-३९

 

अश्रु साकारले आनंदोत्थित।

भाव मोहरले प्रज्ञा-प्रस्फुरित।

कुहरीं कैलासलें कैवल्य गीत।

ओंकार साम नादला ।।            ।।२।।    

 

समुद्राची लाट तळीं उलटली।

वायुची लहरी व्योमीं परतली।

चित्कला कीं अमृतली शरीरीं।

मृत्तिका कावा गुलाबली            ।।३।।    

 

मौक्तीका जल पेटलें शामस्नेहें।

पीतबिंदू संवर्तले संयमप्रवाहें।

चितिकेंद्र वर्तुळलें कैवल्यसंमोहें।

रजोदेह सुवर्णला  ।।              ।।४।।    

 

कृष्णनीर सन्मुखले पाउल मूर्तीस।

सत्यतेज सामोरले शब्दस्फूर्तीस।

ध्येयरूप कीं विठ्ठलावलें आवडपूर्तिस।

बीज फळलें, फळ बीजलें! ।।            ।।५।।    

 

ज्ञानभाव मावळले निवृत्ति संद्धेत।

अस्मिताभान हारपलें अभंगगाथेंत।

नामदेह निवळले रूपतत्व-दर्पणांत।

सहस्वाचे समुल्हासहे  ।।        ।।६।।    

 

निशारंगात व्यक्तलेली आकृती।

सहजाचारांत सजलेली संस्कृती।

बीजविद्येंत बहरलेली स्वरसंगती ।

केवलस्याही स्वरूप संवित ।। ।।७।।    

 

अश्विनी तेजश्रीचे उद्गयन।

आर्द्रा - नीरश्रीचे अभिसिंचन।

भरणी भूश्रीचें बीजगर्भाधान।

नक्षत्रांकुश - वेध हा ।।          ।।८।।  

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