उन्मनी वाङमय

मिटल्या पाकळयांत ओळखा गंधमादन। सुषुप्तींत चाखा निरवस्थान।

१२-२-३९

 

समुद्र कीं श्रीमौक्तिक जलांचा।

सूर्य कीं सु-वर्ण बीज तेजांचा।

प्राकार वा कुशलित - कारणेष्टिकांचा।

नादरूपला तेजोगोल  ।।      ।।१।।

   

विनियोग हें बीजगर्भाधान।

`संविद रं'चें उदगयन।

अथर्वणाचें निष्पादन।

सामसंस्थापनीं ।।        ।।२।।    

 

मिटल्या पाकळयांत ओळखा गंधमादन।

सुषुप्तींत चाखा निरवस्थान।

वृत्तिदर्पणीं कवडसलेला आत्मकिरण।

डोळवा कुशलदृशा!  ।।        ।।३।।    

 

घनवटल्या शून्यांचा गिरनार।

निरालंब - पाउकांचा विद्युत्संचार!।

तेजाळल्या क्षितिजांचा उभार।

बीजगुहेभोंवती या!! ।।        ।।४।।    

 

चाल पाउलवाट गुलाबकळयांची।

माळ मौक्तिकें श्रीसंवित्तळींचीं।

पाळ व्रतें हीं अवधूतकुळींचीं।

असिधारागत  नृत्य  हें!          ।।५।।    

 

बोल हा क्षरीं अक्षरलेला।

गोल हा त्रिबिंदूंत परिघलेला।

डोल हा त्रिशीर्षीं आनंदलेला!

प्रभात नवनिकायाचा!  ।।          ।।६।।    

 

सप्तिंसधूंनीं आलिंगिलेली।

सप्त्प्रष्टारांनीं न्याहाळलेली।

सप्त् उत्संगांनीं सांभाळलेली।

बीजबाला ही पुष्पिता!  ।।          ।।७।।    

 

बीजपल्लवीचा मेळवा अन्वय।

सुवर्णस्पंदांचें रूपवा वलय।

क्षरावस्थांचा संपूर्णवा प्रलय।

आदरा हा कलशाशीर्वाद! ।।        ।।८।।    

 

मरकतभू ही स्वयं - आद्या।

माणिकभू ही सूक्ष्मा स्वयमापाद्या।

मौक्तिकभू श्रीसंवित्संवेद्या।

नील-भू स्वायंभुवा श्री! ।।                    ।।१।।    

 

परामूर्ति मरकत स्थंडिलीं।

सूक्ष्मा माणिक  महाराऊळीं।

संवित् श्री मौक्तिक सलिलीं।

व्योमदर्पणीं नीललिंग!  ।।      ।।२।।    

 

शब्दपीठ विस्तारलें मरकत देहीं।

अर्थदेह स्वरूपले माणिक गेहीं।

अन्वय प्रतिबिंबले मुक्ताजलप्रवाहीं।

नीलमण्यांत बीज  रश्मी ।।      ।।३।।    

 

नीलतेजीं अवधूतलीं `अक्षरी'।

अन्वयते महामौक्तिक नीरें।

शब्दमूर्ति मरकत क्षीरें।

अर्थतत्त्वें अन् रक्तस्नात!   ।।      ।।४।।    

 

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