उन्मनी वाङमय

ज्ञान - चक्षू पाहे श्रीराम - रूप। तो सोहळा अलौकिक ।।

२३-१-३९

 

जयाचें मायीक रूप।

चर्म - चक्षू देखती अमूप।

ज्ञान - चक्षू पाहे श्रीराम - रूप।

तो सोहळा अलौकिक    ।।    ।।२।।    

 

हें जड की श्रीचैतन्य - घन।

एैसा उठे तेथ प्रेम - प्रश्न।

तेव्हां जड - वाद सोडी पंच - प्राण।

श्रीराम - ध्यान स्वयं उरे  ।।        ।।३।।    

 

उठा उठा हो लवड सवडीं।

प्रेमें आठवा संतचरित्र गोडी।

नामसंकीर्तनाची सदा धडधाडाडी।

वाहूं द्या अंतर्बाह्य   ।। ।।४।।    

 

रसाळ प्रेमळ शंकर चरित्र।

आठवा, बोला दिन - रात्र।

तेणें इह - परत्र - सर्वत्र।

श्रीराम - सुखचि भोगाल   ।।        ।।५।।    

 

`रं' उष्मप्रकाश विद्युत्।

`शं' श्री प्रातिभात्म - परस्तत्।

`गं' कर्तृकबीजं कैवल्यसत्।

त्रिसुपर्णा `रशगा'!    ।।                ।।१।।    

 

`कं' विशुद्धिजा गगन ज्योति:।

`यं' मौक्तिक  दर्शनांची स्वाती।

`लं' संवित्श्रीची स्वयंभू द्युति।

त्रिकूटा ही `कयल्` पाद   ।।            ।।२।।    

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