उन्मनी वाङमय

`क्लीं` इति श्यामशून्य ज्योति: प्रदर्शकम्।

२४-१-३९

 

`हं' इति श्वासनलिका प्रशोधकम्।

`पं' इति `रयि' प्राणसंव्यवस्थापकम्।

`ळं' इति कुहरस्थ सुषुम्ना व्यापकम्।

स्वस्तिश्रिये! `हपळा'त्मके! ।।            ।।१।।    

 

`ज्ञं' इति श्रीसंकल्प पादुकारेणुकम्।

`तं' इति श्रीमहाकारणमृत्यणुकम्।

`मं' इति महानुभाव मणिसूर्यख्यापकम्।

नमो%स्तुते `ज्ञतमे'श्वरि! ।।          ।।२।।    

 

'श्रीं' इति संविद्ज्योति ररुणंाचलम्।

`ऱ्हीं` इति शुक्लाध्यस्त प्राणपंचकसंयामकम्।

`क्लीं` इति श्यामशून्य ज्योति: प्रदर्शकम्।

नमम: त्वा सरलानने! ।।                ।।३।।    

 

जीवकोटीचे अंतर्घटक।

तत्त्वोल्लास हे नवबीजक।

जड - अजड संमिश्र असंख्य।

क्षराविष्कार अक्षराचा   ।।          ।।४।।    

 

पंचकोशांच्या मणिमंचकीं।

ऊर्ध्वद्विदेहांच्या शरण अंकीं।

कुशलित - संस्कारांच्या महामरवीं।

अक्षर न्यासांचा सहज प्रकर्ष! ।।            ।।५।।    

 

संचित प्रवाहांचें पुन:संयोजन।

संस्कार समीरांचें संज्ञानजन्य संकलन।

अतीत अनागताचें कुशलस्थ वर्तमान।

बीजन्यास प्रक्रिया ।।            ।।६।।    

 

नवनाथतत्त्वें हीं नवमौक्तिकें।

षट्कोनमंदिरींची गर्भकौतुकें।

वैखरलेलीं संवित्चितिसुखें।

पंचदशी ही निराकार!   ।।        ।।७।।    

 

शुक्लपक्ष हा दशपंचतिथींचा ।

मत्स्य.गो.च्या एकोदित दीप्तीचा।

'श्रीबीजंमा'च्या विद्यापयोधरीचा।

क्षीरसमुद्र कीं साक्षात्!   ।।                ।।८।।    

 

स्थूल सौभाग्यांचा वर्षाव।

सूक्ष्म क्षेमांचा आविर्भाव।

अज्ञात आशींचा प्रभाव।

`बीजंमा' च्या राऊळीं  ।।            ।।१।।    

 

अठ्ठावीस तेजांचा हा नक्षत्रराशी।

निक्षेपिला श्री श्री श्री धुंडिनाथचरणांपाशीं।

अवतरला जो आदिनाथ श्रीवंशीं।

आदिपुत्रक नाथगुरू! ।।            ।।२।।    

 

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