स्वस्तिश्रिये! जयश्रिये! नैर्ऋते।
आंतर्नीलांजसे! श्रीसुषुप्त्यर्थे।
नेदिष्ठे! नीलनयने! सुस्वस्तिके।
नमस्या तुला! ।। ।।१।।
अंत: प्रवेशतां ही रहस्य शिक्षा।
नेदिष्ठेल महाबीज संरक्षा।
दुखील अध:पतनकक्षा।
सांभाळील जीवश्यावका! ।। ।।२।।
नील नील न भ्राज वोळंगले।
गूढ गूढ निक्षेप अंतर्गर्भले।
सौम्य सौम्य स्फूर्तिरश्मि तवंगले।
रोहिणी भावीं ।। ।।३।।
अश्वत्थांत कोरिलें एक निष्कुह।
जेथ अल्पचेतनांचा समूह।
किलबिलें आणि निष्पादवीजो कलरव।
तदर्थ आम्हा ठावा ।। ।।४।।
कुहुंगीत तें आम्हासी आकर्षण।
तदनुसंधानें आमुचे उच्च्तन उड्डाण।
आमुच्या वक्षीं त्या अजाण अर्भकांचे स्तनपान।
आपचेच अल्पजन्म ते ।। ।।५।।
जेथ जेथ निष्कषायवृत्ती।
जेथ जेथ दीनतार्चन संपत्ती।
जेंथ आर्तांसि दीषें सुखार्ती।
तेथ आमुचें सुखासन ।। ।।६।।
झरणी दु:खाश्रूंची अलोट।
तीच आमुची मौक्तिक वाट।
जेथ उभली त्रस्त नि:श्वासांची लाट।
आमुचें तीर्थक्षेत्र तें! ।। ।।७।।
पांगुळयंाच्या आम्ही पाउका।
स्थानभ्रष्टांचा आम्ही बैठका।
पतत्सूंच्या पीठभूमिका।
सेवा आमची नैजवृत्ती! ।। ।।८।।
उद्वेजितांच्या निकटीं।
आम्ही विश्रामतो आमुच्या निष्कुटीं।
दरिद्रतेच्या चंद्र मौलिमठीं।
सदैव आमुचा अधिवास ।। ।।९।।
सुवर्ण मंदिराचे आम्ही द्वेष्टे।
दलित दीनांचे दैन्य द्रष्टे।
पतितांचे उदयभाव स्त्रष्टे।
सख्यभाव तेथ आमुचा ।। ।।१०।।
रंजल्या गांजल्या शेजारी।
बैसुनि विभागू आमुची मधुकरी।
दुराश्रित चाकरांची चाकरी।
स्वाराज्य वैभव आमुचें तें ।। ।।११।।
पुसावया एक अश्रु लहानगा।
धावूं आम्ही तुडवीत लगबगा।
नंदनवनिच्या गुलाब बागा।
अश्रु `चुंबक ,लोह, देह आमुचे! ।। ।।१२।।
स्फुटली जेथ करूण किंचाळी।
जेथुनि न ढळे दुर्दिन सावली।
तेथ आमुची अवधूत पाउली।
सुखेनैव संचारते ।। ।।१३।।
नि:स्तब्ध व्हा!
ऐका आमुची चाहूल।
घेउनियां नेत्रवा हें प्रकाश फूल।
शीर्षवा ही भैरव पदधूळ ।। ।।१४।।
अष्टकौस्तुभ अष्टांग कोनी।
रत्नखचिलें श्रीब्रम्हभुवनीं।
श्रीगुरू आज्ञा संतर्पणी।
चौ - देह झिजूं दे ।। े।।१५।।
नगरी ही आटपाट।
श्रीभाव नि:स्यंदला कांठोकाठ।
संवित्तीची ही डोंगर लाट।
विश्वशीर्षि उत्तंसली! ।। ।।१६।।
अष्टझोत येथ धाविन्नले।
अष्टपुष्पकुंज येथ सासिन्नले।
अष्टदेह दिग्गज मदोन्मत्तले।
संविद् विस्फार विराट हा! ।। ।।१७।।
अष्टकेंद्रांची आठोपळी।
अष्टग्रहींची कदान्नझेाळी।
अष्टत्रिपदांची भूपाळी।
सुप्रभातीं चया श्रवविली! ।। ।।१८।।
अष्टदलांचा हा कमलकोश।
द्विचतुर्व्याहृतींचा सामघोष।
अष्टावसूंचा बाळसंतोष।
प्रकटला चैा-देहकृपया ।। ।।१९।।
अष्टकोन आतां मध्यकेंद्रले।
अष्ट दिग्बंध नीलग्रंथींत संबंद्धले।
अष्टमहाश्रेेात आजि एकमुखले।
भैरवोदधींत या! ।। ।।२०।।
मत्स्यानें गिळिलें एक माणिक।
मूल्यतयाचे नवनवति लाख।
रूजविला एक प्रकाश पारव।
स्थिरभानस्पर्शे! ।। ।।२१।।
जीवनिष्कुहें आम्ही हेरतो।
रत्नबीजें बहुमोल आणि तेथें पेरितों।
आज्ञाचक्रा प्रथमागति प्रेरितो।
`क्षीरस्पर्श विधान' हें ।। ।।२२।।
जीवकोशांनों खोला पाकळी पाकळी।
सगर्भांनो उकलवा ग्रंथी मोकळी मोकळी।
आणि देखा अरूंधती जी हांसली हांसली।
नोधा हास्य विभिन्नलें! ।। ।।२३।।
एकसमयें सगळे आम्ही हसूं।
एक पीठीं सगळे आम्ही बसूं।
एक गोठीं सगळे आम्ही पुसूं।
एकमेका ।। ं।।२४।।
कदंब कलिका जैशा मुकुलती।
मुकुलुनी सौरभ हास्यें प्रस्फोटती।
तैशी संयुक्तलेली शतैक वृत्ती।
अवधूत पादांची! ।। ।।२५।।
उकला कोश कोश दीधीत दृशा।
टाका पाउ पाउ येथल्या अंत:प्रवेशा।
अनुभवा प्रकटल्या नवनवोन्मेषा।
डोळवा आरुंधति बिंब! ।। ।।२६।।
ऊर्ध्व ऊर्ध्व गतीचें भान।
देखणें चढती चढती कमान।
साधणें बिंबा बिंबाचें ध्यान।
आंतर अनुक्रमें ।। ।।२७।।
अठ्ठावीस प्रतीकांचें सम्यग् विभावन।
एक एकाचा अम्यग् न्यास सम्यग् ग्रहण।
उत्तरोत्तर प्रगत पदांचे व्यवस्थापन।
अरूंधति दर्शन हें! ।। ।।२८।।
अरुंधति भानांच्या जवनिका।
एक एक मावळतां दुजी दुजीस देखा।
प्रकाशा प्रकाशांतरीची नवोनव लेखा।
अरुंधति गौप्य हें! ।। ।।२९।।
लोकलोक यथाक्रम मावळलें।
अश्वत्थ अश्वत्थ अनुक्रमें पालवले।
चरण चरण बागेश्रींत तालवलें।
अरुंधति लास्य देखा हें! ।। ।।३०।।
सोलला पापुद्रा पापुद्रा कंदर्पाचा।
देखला अविष्कार अवकाशगर्भाचा।
घेतुला मागोस मूळ मूळ निरुक्ताचा।
नुरे अर्थ, स्फुरे गगननाद! ।। ।।३१।।
भावभाव निवटितां देहो%हं वृत्तीचे।
अंतिदर्शन एकमात्र चित्कलेचें।
ऊर्ध्ववितां पडदे पडदे `अस्मिजन्यचेष्टांचे।
विशुद्धा झळके श्रीमहाचिति ।। ।।३२।।
अरूंधति ही दीिप्त् - पथिंची प्रकाशांगुलि।
चुकल्या वासरांची मायगाऊली।
पोळल्या पथिकांची श्यामसावली।
पर प्रतीकं हें श्रीभावाचें! ।। ।।३३।।
साशन अनशन प्रकृति हा द्विविध।
पुरूष भाव या स्वरद्वयीं व्यक्तल्या विशद।
त्रिस्तत्त्वांचा या समन्वित प्रसाद।
सुश्रीत अवस्था ही ।। ।।३४।।
जयश्रिये! तत्त्व स्त्रिशिखे! कर्पूर गौरे।
महाभैरवि! कृष्णदाम्नि! चंद्रकोरे!।
अरूंधति प्रतीके! रयि प्राणनुपुरे।
अजय्ये! पिप्पलादे ।। ।।३५।।
जय श्रिये! महाज्वाले! स्वस्तिकाकृति ।
जय श्रिये! अगस्तिप्रभे! `गोम' नेत्र द्वयवर्तिनि।
चौ पीठस्थें! ब्रम्हदेहाकर्षिणि।
अतीतते! संवित् श्रिये! ।।२७।।