उन्मनी वाङमय

तेज हें आपुल्या अतिकारण जननीचें। मार्गदर्शक जणुं ध्रुवबिंब अत्त्युत्तर दिग्भागाचें।

१४-१०-३८

 

संविद अनुभवाचें स्वैरतारूं।

सुनील सलिलीं लागतां भरारूं ।

संचार अवधूत म्हणती `साक्षात्कुरू।

जय! स्वात्मन्! अगस्ति तेज इजम्  ।। ।।१।।

   

तेज हें आपुल्या अतिकारण जननीचें।

मार्गदर्शक जणुं ध्रुवबिंब अत्त्युत्तर दिग्भागाचें।

फुटल्या नावेंत मोडता रश्मि जो नाचे।

ठेवा तेथ अनुसंधान   ।। ।।२।।

 

कल्लोळल्या वीचीवरी वीची।

गर्दी ही रोहिणी भावनांची।

अर्थवत्ता गतिस्तंभ प्रक्रियेची।

रोहिणी वृत्तींत ओळखा   ।। ।।३।।

 

’रोहिणी' आमुचा कुंभक श्वास।

महावाक्यार्थांचा स्थायी उद्भास।

गतिभावाचा विरोध विकास।

रोहिणी दर्शन हें  ।। ।।४।।

   

रोहिणी भाव ही संवित् कलेची सुषुप्ती।

किंवा श्रीमहातत्त्वाची स्थिरज्ञप्ती।

अथवा भैरवी चक्राची स्थाणुगती।

जय श्रिये! रोहिणीभावने!  ।। ।।५।।

   

आता चलत् - पादलें श्रीव्यूहचक्र।

येथली युगगती स्वभाव वक्र।

निष्कांचन येथलें श्रीमंत श्रीशक्र ।

उफराटी अन् वर्ण व्यवस्था  ।। ।।६।।

   

मातंग अस्पृश्य पंचम।

आमुच्या व्यवस्थेंत चमकती द्विजन्म।

यदि तया जीवकां विश्राम।

श्रीजन सेवेंत  ।। ।।७।।

   

अज्ञ आर्त आणि उन्मत्त।

अविवेकी, आसक्त, मदमस्त।

कामुक, असहिष्णु, अप्रकाशित।

प्रामुख्यें श्रीजन हें   ।। ।।८।।

   

विनयन या श्रीजन श्रेणीचें।

अवतार कार्य श्रीत मनुदेहाचें।

प्रकट ध्येय अव मह लोकत्रयाचें।

उत्तम धर्म अद्य युगाचा   ।। ।।९।।

   

जातिजन्म येथें अमुख्य।

कर्मवर्ण येथलें असंख्य।

तस्मात् जातिभेद येथें चतु:सहस्त्राख्य।

चातुर्वण्य चतु:सहस्त्रलें  ।। ।।१०।।

   

एकमात्र जीवनीं बहुवर्ण संभव।

प्रतिदिनिं प्रकटती शूद्र वैश्य क्षत्रभाव।

श्रीब्रम्हवर्णाचें कीं नुरले शब्द नांव।

या नांव वर्णसंकर  ।। ।।११।।

   

प्रतिक्षणी प्रतिदिनीं प्रतिजीवनीं।

चतुर्वर्ण संकरती वृत्तिदर्पणीं।

यस्मात् निश्चित वर्ण लक्षणीं।

संदेह हा सहजभाव  ।। ।।१२।।

   

रैक्व ब्राम्हणा `शूद्र संबोधना।

मातंगदेहा  श्री श्री श्री ब्रम्हभावना!।

पिंगलेस ललिता पद समर्पणा।

वर्ण बाहुल्य तत्त्वगर्भ हें  ।। ।।१३।।

   

रंगोटी झळके  जी कारण देहीं।

अस्पष्ट प्रतिबिंबे ती त्रिप्रवाहीं।

आचार उच्चार विचार या त्रि स्नेहीं।

तेवते वर्णज्योती   ।। ।।१४।।

   

कारण देहांचे वर्ण अप्रकट।

तेथ डोळवणें दृष्टि सुधीट।

तेथ बिंबभावलें श्रीपीठ।

वर्ण-द सामर्थ्य तेथिंचें  ।। ।।१५।।

   

दीधीतन संस्कार ब्राम्हण्य हें।

दीधीत ब्राम्हणा श्रीदेवयान पंथु।

तेथ भूमाभाव श्रीकेतु।

यज्ञोपवीत त्या नांव  ।। ।।१६।।

   

पंच जन्मजातींचे दीधीतन।

हेंच ब्रम्हान्हिकाचे पंचयज्ञ।

अदीधित मानव्याचे शेषान्न।

अवधूत अतिथियां साठीं!  ।। ।।१७।।

 

येथलें शेषान्न यजमाना विषग्रास।

येथला काकबली पवित्रित कारणान्न।

संकल्पन मंत्र येथलें त्रिसुपर्ण।

सुपर्णोत्थान हें!   ।। ।।१८।।

   

ब्राम्हवर्ण ही दीप्त्रिेषा।

जरि अणुमानव्य लाधे तेथल्या क्षणस्पर्शा।

तरि निखिल मानव्य महाद्वार प्रवेशा।

होईल सहज शक्त   ।। ।।१९।।

   

धगधगलेली ती ब्रम्हज्वाला।

जयाचीच क्षत्रभाव ही ज्यातिकला।

वैश्य शूद््र पंचम ही स्फुल्लिंग माला।

तेजस्तत्व एकमात्र  ।। ।।२०।।

   

स्फुल्लिंग ज्योति आणि ज्वाला।

अग्नि तेजाचा सुवर्णभाव त्रिविधला।

जणुं कीं अहिकल्प त्रिनेत्रला।

व्यवस्थान वर्णांचें  ।। ।।२१।।

 

नवशारदीय आमुची इंद्रधनु।

येथले डोळवा सप्त्वर्ण कणु।

जन्मवी अभिनव समष्टी तनू।

कर्म-कुशला ही नवस्मृती  ।। ।।२२।।

   

देखा ओळखा महोदय पर्व हें।

अवतरलें जणु श्रीतत्त्वसर्व हें।

महासिद्धि तंत्रांचे अथर्व हें।

श्रीनवव्यवस्थापन!  ।। ।।२३।।

   

इंद्रधनूच्या सप्त्वर्णांचे परिवर्तन।

स्वैर - चालले जेथ अल्पचितींचे मंडलन।

सहजस्थितें कीं व्हावें भूमातत्त्वाचें अंतर्वितरण।

क्रमविक्रास रीत्या   ।। ।।२४।।

   

या! या! जीवसंख्यांनो! बैसूं मंडलाकार।

या! या! करूं निजमहांचा परिष्कार।

या! या! उषस् - सूक्तीं उत्थानूं श्री प्रभाविष्कार।

ऊषस् - सूक्त श्रीसंहिता ही!   ।। ।।२५।।

   

झरझरा अवधूत पाद लागले चालू।

भरभरा रत्नकोश देखा! लागले खोलंू।

तरतरा ओष्ठ द्वय, ऐका लागले बोलूं।

श्रवा, श्रुतवा! श्रुतिश्री ही!  ।। ।।२६।।

   

`धुळवूं आम्ही पाषाण मंदिरें।

बाटवूं आम्ही जडजलक्षेत्रं। 

आणि लाथाळू पूजाद्रव्य पात्रें।

मूर्ति भंजक आम्ही   ।। ।।१।।

   

उन्मेषला माझा माध्यान्ह नेत्र।

प्रारंभिलें आज महाज्वलन सत्र।

नोळखूं हें व्योम कीं धरित्र।

पेटवू सप्त्लोक!  ।। ।।२।।

   

भूकंप भुवस्कंप सुवस्कंप।

महाकंपाचा सोडिला आज संकल्प।

कीं सामोरावे उद्याचलींचे नवकल्प।

पुन: सृष्टर्थ संहार हा!  ।। ।।३।।

    

देवुकल्यांच्या कंठीं लावूं नख।

जीर्णाचाराचें धर्मशास्त्र द्विपंख।

मोडूं, पुन:संस्थापू श्रीमहालोक।

स्मशान राखेंत या!  ।। ।।४।।

   

आंधळया कर्मसंस्कारांचे मोडूं पेंकाट।

शाब्द, द्राव्य पूजाविधींचा करूं नायनाट।

कुजक्या काष्ठांचा अग्निप्रलय विराट।

इंधवू आज!   ।। ।।५।।

   

आटविल्या नदीच्या अभिनवपात्रीं।

आम्ही ओघळवूं महाजीवन सरस्वती।

जी सप्त्वर्ण सिंधूंची सहज संगती।

नवयुगानुभव हा  ।। ।।६।।

   

जाळूं या जीर्णयुगांचीं लक्तरें।

पोळूं या जीर्णनीतीचीं मखरे।

माळूं या नव धर्ममौक्तिकें प्रज्ञासूत्रें।

आणि पूजूं नवजीवनीं!   ।। ।।७।।

   

प्रलयंकार आम्ही भयानक।

आमचा अश्वत्थ अनंत शाख।

आमुच्या मशाली नवनवलाख।

जाळपोळ ही!   ।। ।।८।।

 

भैरव क्रिया, भैरव श्रीचक्रा दिली कलाटणी।

जी उद्ध्वस्तील प्राप्त्धर्मश्रेणी।

चढवील सुवर्णाकार लेणीं।

अंगीं समष्टिबालेच्या  ।। ।।९।।

   

हाट आमुचा अंतराळी!

आणा जीर्ण वस्तुतत्त्वांचीं भेंडोळीं।

आणि घेऊनि जा नवरत्नें हीं अंचली।

परि मृत्यु येथिलें मूल्य   ।। ।।१०।।

   

चालवा स्वकंठी ही असिधारा।

अनंतयुगकोटींचा अहंदेंह मारा।

आणि अनुभवा नवजातक संस्कारा।

महाजातक अमृतत्त्व हें!   ।। ।।११।।

   

येथ जातकलेल्या चिती।

संश्रवणश्रेणी संश्रीत संतती।

तयांची अभिनव महदनुभुती।

प्रतिबिंब संवितीचें!।। ।।१२।।

 

आमुचें हत्त्याकांड नवजीवनासाठी।

आमुची जाळपोळ नवोद्यानासाठी।

आमुचा प्रलयाग्नि नवसृजनासाठीं।

विधायक संहार हा!  ।। ।।१३।।

   

नमो%स्तुते! जयिश्रिये! संवर्तज्वाले।

हिंसक तत्त्वनीरांच्या महामेघमाले।

अनंत युगसाक्षिणि! दंष्ट्राकराले।

मूर्तिभंजके! पुन: संजीवनि   ।। ।।१४।।

   

    

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