१०-१०-३८
स्वस्तिश्रिये! भूतांतर्यामिनि! अन्नादे!।
स्वस्तिश्रिेये! महोद्गीथिनि। वसुवासव्यदे!।
वस्तुज्ञे, कुहरनादिनि, आद्य स्वसंवेद्य संज्ञे।
परोरजस्वरुपिणि! ।। ।।१।।
`अध्युष्ट 'श्रीभू' येथ प्राप्त्ले`।
संवर्तवात चक्र समंतत: प्रस्फुरलें।
षोडशमंत्र समुद्गरले।
श्रीपूजनांत या ।। ।।२।।
चतुर्देहांचा कर्पूर।
पंचकोशांचें मुखर।
नवावरणांचा संभार।
महापूजेस या! ।। ।।३।।
श्रीविद्येच्या नीलोत्संकीं।
महाकारणाच्या लाहित मंचकीं।
श्रीसंस्कृताच्या पिंगलपंखीं।
अद्यजन्म माझा! ।।४।।
पिंगलपंखाचा हा एंक रेणू।
स्वपदाब्जीं शोभवील श्रकामधेनू।
ऐसे पसरिले सहस्त्रैक अणू।
रत्नखचिलें जणुं श्रीमंदिर! ।। ।।५।।
स्थावरबोध हा पेरिला।
अचलध्रुव हा हेरिला।
चतुष्कोण हा कोरिला।
कारण शिलेवरी!।। ।।६।।
अंगारक हा अंतर्यागाचा।
कायाग्नि हा श्रीपराज्योतीचा।
षोडशचंद्रमा चतु:षष्टितंत्रांचा।
जणुं येथ पौर्णिमला!।। ।।७।।
`एें` `ऱ्हीं` `श्रीं' 'क्लीं' हें चातुर्वर्ण्य।
चतुद र्ेहकलांचें कंचमशरण्य।
कोटिमहाचैतन्यांचे कैवल्य अनन्य।
स्व-स्व-स्व- श्रीरूप!।। ।।८।।
आज करूं बीजगणिताची मांडणी।
आज करूं `सुधास्तनयत्सु'ची सांडणी।
सव्यापसव्याची एकाश्रित उभारणी।
ऐसें महत् स्थंडिल हें!।। ।।९।।
`चौरंगी सिद्धि' येथली महादासी।
कर्पूरश्रिया संतर्पी श्रीप्रतीकासी।
श्रीवल्लरी फुलतांच सिद्धिभ्रमरीसी।
येथ अवश्य संचार।। ।।१०।।
श्रीवल्लरी फुलतांच अष्टवसूंचे मीलन धाम।
एकविंशति तत्त्वांचा सहज सिद्धसंग्राम।
चतुर्व्याहृतींचा निष्पंद विराम।
श्रीविद्येंतील कर्पूरसिद्धि!।। ।।११।।
हे रहस्य शुक्लांबरींत देहलें!।
हें रहस्य नवनाथांत गेहलें!।
जेथ श्रीतचैतन्य नि:संदेहलें।
कीं आम्ही भौतिकराज!।। ।।१२।।
भौतिक आमुचें सन्मुखलें श्वान।
सिद्धि आमुच्या श्वासविधान।
मुक्ती आमुच्या सेविका अनन्य।
श्रीराजैश्वर्य! विलसलें!।। ।।१३।।
महिरपी चित्रविल्या श्यामपृष्ठीं।
हारितली त्यामुळें अंत:सृष्टी।
नंतरी अंतर्मुखल्या नवदृष्टी।
प्रमुखा तेथ `अयोध्या'!।। ।।१४।।
नवदृष्टींत नाहलेले नवनाथ।
सप्त्भूमिकेंत संस्थितले लोकसप्त्।
कर्पूरतेजें भास्स्वरले एकादश पंथ।
रूद्रदेव-श्रीरश्मिते।। ।।१५।।
गौप्यबीज ठेविलें भूमिपृष्ठीं।
स्वस्तिकरत्न मालामध्यलें कारणकंठीं।
चंद्रिका बिंब प्रतिबिंबलें महामठीं।
व्योमपुष्पाचा फुलोरा जो।। ।।१६।।
रजतरसांची रसनिर्झरी।
फेसाळली आज्ञाकुहरीं।
आतां डोळिव चंडोलभरारी।
नवनिमेषदृशा।। ।।१७।।
अष्टादशविद्या येथ प्रभातली।
तिमिरसृष्टि येत्र विघातली।
आणि महाप्रज्ञा संततली।
श्रीस्वाक्षरींत या ।। ।।१८।।
व्योमगंगेचा अवतरला तुषार।
भैरवलेला पातला मल्हार।
नवमौक्तिंकाचा ओघळला हार।
महासिद्धि क्षण हा!।। ।।१९।।
श्वानलेल्या अष्टोत्तरदशैक सिद्धींनो!।
समृद्धलेल्या वैनायक ऋद्धींनों!।
कर्पूरलेल्या अंतर्यागिंच्या महाशुद्धींनों।
तुम्हांसि स्वस्तिवाचन ।। ।।२०।।
रत्नरश्मिलेली महामृत्तिका।
नीलांबरलेली चैतन्यकृत्तिका ।
जणुं अखंडार्थलेली `सोहं' वृत्तिका।
आदिभान हें!।। ।।२१।।
स्थानलें मत्स्य दृष्टीच्या कोंदणीं।
चंद्रलें चौरंगवृत्तीच्या गगनीं।
समाधलें, सम्राटलें या श्रीसंस्थानीं।
$ नमेाजी नाथा द्या ।। ($ नमो श्रीनाथाद्य हे!) ।।२२।।
समाधिधनाची नवमुद्रिका।
जागृद-एक क्षणीं पारखा।
भोगा, लुटा, डोला, डोलसुखा।
चाखा अमृतग्रास हा!।। ।।१।।
ओष्ठिला महानैवेद्य सर्वस्वाचा!।
तुष्टला महापिपासु ब्रम्हवर्चस्वंाचा।
पुष्टला सूक्ष्मध्वनि नवरंध्रांचा।
भरारेल अत:पर सप्त्लोकीं! ।। ।।२।।
तृतीय अंतनेत्रि आतां उघडेलं!। (उघडीन )
मानव्यकुलमृत्तिका आतां सुघडीन।
पदरजलें शिलाखंड व्योमवीन।
ध्रुवदीाििशप्त्खेंत ।। ।।३।।
तुरीयलेल्या भावमौक्तिकाचें तेज।
श्रीललितेची मखरलेली सौदर्यशेज।
श्रीशिष्याची सारवलेली गुलाबनीज।
आणि सन्मुखलें गुलाबस्वप्न!।। ।।४।।
विभववर्षिणी ही कादंबिनी।
आंतर्मखपीठींची स्वरस्वैरिणी।
कृृष्णाकृत जीवचैतन्य करकर्षिणी।
श्रीसंहिता ही!।। ।।५।।
षट्चक्रन्यस्त षडगुणैश्वर्य।
षडंगारलें षट्पुत्रलें श्रियांधृतवीर्य।
आशीर्वच हें आपूर्य चतुर्देहांस।
मंगलवी!।। ।।६।।
जयश्रिये! जय सप्तिम! सप्त्भूमिके!।
पंचकोशधारिणि! पंचवल्मिके।
नवगंधे! नवनादे! नवनासश्रवणिके।
येथ तुझें मंगलायतन! ।।।।७।।