८-१०-३८
आज बहरली श्रुतिवल्लरी।
आज कोसळली महानुभाव निर्झरी।
आणि दरवळली समाधिमंजरी।
त्या नांव `संश्रवण'।। ।।१।।
येथ अतीतत्व इहदेशलें।
येथ निर्गुण परिवेशलें।
आणि अनंत तत्त्व सशेषलें!।
या नांव संश्रवण।। ।।२।।
पंच कोशांच्या पंचांगुली।
करकमल भावना व्यक्तावली।
अमृत कवलिका ओष्टावली।
घास हा गोसावड्याचा ।। ।।३।।
संश्रवण म्हणजे सम्यक्-ग्रह।
महदनुभूतीचा कर्पुर प्रवाह।
सुवर्णसूत्राचा अंतर्भाव।
नव मौक्तिकांच्या आंतरव्योम्नीं ।। ।।४।।
सश्रवण स्थिति ही नवमहाद्वारिका।
परमश्रेणि श्रीविशेषिका।
आदि ज्योत्स्नेची प्रकाशलेखा।
स्वयंप्रभ ही पौर्णिमा ।। ।।५।।
संश्रवण -देहाचीं नवद्वारें।
महागुह्य विद्येचीं मखमंदिरे।
नवशक्ति ग्रहांचीं गगन गोपुरें।
संश्रवण भूमिका ।। ।।६।।
येथ `हुं`कार विश्रामस्थनला।
येथ `श्रीं'कार $कारला।
आणि साक्षात्कार विकारला।
नवात्मनिं संदेशदेहें ।। ।।७।।
अवस्थाततींचा हा संश्रवणावतंस।
चिति विकासक्रमांचा हा पूर्णोल्हास।
सौंदर्य समाधीचा षोडशोत्क र्ष।
`संयद-वाम' हा ।। ।।८।।
`संयदवाम' म्हणजें सौदर्यांची गंगोत्री।
कुहरिणी-कुशल श्रोतसांची सुसंगती।
चिति सहस्त्रांगांची संप्रणती।
सौदर्य साधना ही ।। ।।९।।
गुह्यनाम हिचें `वामनी'।
`सौंदर्यलहरीं`ची जननी अशरीरिणी।
क लहंसेची नृत्त्यनादिनी।
शुक्लहंसा संश्रवणभूमी ।। ।।१०।।
परिमाण साम्य लहरी लहरींत।
प्रतिनाद साम्य कुहरी कुहरींत।
लालित्त्य साम्य कुसरी कुसरींत।
कलाभुवन हें कळसलें!।। ।।११।।
श्रीतांची आश्रितांची पुण्यशाला।
पतनोन्मुखांची शरणनौका विशाला।
जीव चैतन्य चंद्रमण्यांची शरच्च्ंद्रकला।
रहस्य कौस्तुभ ही भूमि ।। ।।१२।।
त्रयोदशगुण संपुटला तांबुल।
शतैक हीरकांचा हार विलोल।
नवखंडांचा भव्य भूगोल।
चितारला येथें ।। ।।१३।।
`संकलन' म्हणजे संपादन।
इंद्रियानुभूतींचें अर्थग्रहण।
आणि कूटस्थ बिंदूंत समर्पण।
संवेदनांचें।। ।।१।।
नभीं नभीं चमकल्या चंद्रिका।
जलीं जलीं अंतर्भवल्या मौक्तिका।
मेघीं मेघीं लपल्या विद्युल्लेखा।
समाहरण तयांचे ।। ।।२।।
वनीं वनीं वासळलेले सुगंध।
मनीं मनीं उद्गीथलेले श्रुतिछंद।
नयनीं नयनीं रुपलेले भावचंद्र।
ग्रंथिलें त्यांस येथें ।। ।।३।।
हृदयाहृदयांत खेळली प्रीत।
ध्याना ध्यानांत स्पष्टली मूर्त।
नामा नामांत नादला परमार्थ।
येथ त्यांचा मेळव।। ।।४।।
संकलन स्थितीचा रहस्यराज।
नाथदेशींचा मंडप-रिवाज।
सायुज्यमुक्तीचा सालंकृत साज।
मणिभूमिका ही ।। ।।५।।
शास्त्रसिद्धांतांचे समीकरण।
चतु:षष्टि सिद्धींचें समव्युत्थान।
महाभूतांचे पंचपंचीकरण।
संकलन-भूमि ही ।। ।।६।।
संख्यावृत्तीचें एकभावन।
तेहतीसकोटींचें ब्रम्हकारण।
जणुं द्रव्ययज्ञांचें संक्रमण।
नारायण नाम यज्ञी ।। ।।७।।
संवेदनांची अर्थवत्ता।
अहंभावाची प्रस्फुटता।
चितिदर्शनाची उत्कट उत्सुकता।
संकलनपदीं ।। ।।८।।
जयश्रिये! संकलनस्वरूपिणि।
अनंतसौरभांच्या एकपुष्पिणी।
कोटि जीवमहाकाश स्वरूपिणि।
नवनेत्रि नवरंगे!।।।।९।।