उन्मनी वाङमय

झेला! अनुभूतीचे पारिजात।

२-१०-३८

(म्हणवूनी मज लेकुरवाचेनि बोलें। तुमचें कृपाळूपण निदैलें।तें चेइलें जी जाणवले या लागीं बोलिलो मी)

व्यक्तवा तुमचा नाजुक हस्त।

झेला! अनुभूतीचे पारिजात।

हळुवारंपणें उन्मीलित।

होंतसे पाकळी पाकळी   ।। ।।१।।

   

अनुभूति नव्हें एेंद्रियज्ञान।

नास्ति पुन: ऐंद्रियज्ञानांचें समीकरण।

तेथ भंगविणें वृत्तिदर्पण।

वस्तुप्रतीतींत   ।। ।।२।।

   

फुटल्या आरशांत देखरूप।

वृत्तिवैधव्यांत शृंगारवा आत्मरति सौख्य।

वांझेल्या इच्छा भामिनीचें पुत्रकौतुक।

त्या नांव अनुभूती!   ।। ।।३।।

   

न कदां शोधा प्रमाण।

डोळवा अनुभूतीचें स्वयंप्रकाशन।

आर्ति आणि निदान।

मूलत: एकस्वरूप   ।। ।।४।।

   

जीवन आणि अनुभूती।

एकसमयें उत्स्फूर्तती।

तेथली खूण जीवन्मुक्ती।

अवधूत गुह्य हें  ।। ।।५।।

   

जीवनवा अनुभूतीस क्षणोक्षणीं।

व्यक्तवा महाबिंब नेत्रदर्पणीं।

निर्झरला महानदू आत्मजीवनीं।

समुद्रवा अनुभूती बिंदूला   ।। ।।६।।

   

महाजीवनाच्या समुद्रपृष्ठीं।

श्यामवृत्ती बिंबेल गोमटी।

अनुभूति `तुका सदेह वैकुं ठीं'।

सहजें विराजेल!   ।। ।।७।।

   

सत्त्ववृत्ती पांढरी पंढरी।

मृत्तिकलेली जणुं वैकुंठपुरी।

अभंगमाला सुवर्णाक्षरी।

तेथ बिंबले श्यामस्वरूप!   ।। ।।८।।

   

आज उलटली इंद्रायणी!।

ऊर्ध्वली, उत्स्फूर्तली गिरिनारशरणीं।

भक्तिभाव नाथले उद्गीथ गगनीं।

अनिरूद्ध संप्रदाय हा!  ।। ।।९।।

   

`उद्गीथ विद्ये`! श्रुति परायणे!।

येथ मूर्तलीस भक्तिसुखगानें!।

येथली कर्मविधानें।

अति अति सुलभ!   ।। ।।१०।।

   

उद्गीथ - नाद देहघुमटीं।

प्रतिनादला `एें` बीजासाठीं।

पुन:स्फुरला `ऱ्हीं' बीजापाठीं।

`क्लीं` बीजांत संस्तब्धला!   ।। ।।११।।

   

उद्गीथ शास्त्र हें श्रियादृष्ट।

संप्रभास येथला प्रतिवषट्।

`ज्ञं` `हं` `रं` येथलें कूट।

त्रिनेत्रलें गौरांगभालीं!  ।। ।।१२।।

   

उद्गीथाचें सौम्य सारस्वत।

आज झालें सहज - सनाथ!।

`संप्रदाय' ही क्षीरधारा संतत।

पुष्टवी कारणश्रेणी  ।। ।।१३।।

   

गोरक्षाचें गोदुग्ध घनाकारलें।

नवनाथांचें दारिद्रय धनाकारलें।

आदिनाथांचे शरीर जनाकारलें।

ब्राम्हणदेहीं या!   ।। ।।१४।।

   

माध्यान्हली श्यामा रजनी।

क्षण हा मंगलोत्तम मुहूर्तचिंतामणी।

पाडसां गोरक्ष-माउली धरी स्तनीं।

दुभले चतुर्देहांचल   ।। ।।१५।।

   

गोरक्षविद्येचा फुटलेला पान्हा।

व्यक्तवील जगीं महाजीवना।

भेटवील जीवजाति नयनां।

महाबिंबानुभूति!   ।। ।।१६।।

   

उद्गीथाचे फेकिले हीरक।

वृश्चिकाचे करविले डंख।

मृत्तिकेचे मोडिले मंचक।

तदैव महानुभूति!   ।। ।।१७।।

   

सत्त्यें भिर्काविलीं 'ऋतांत'।

कर्मे उद्धस्तविलीं उद्गीथांत।

शास्त्र सहस्त्रें अद्वैतवलीं सहजाचारांत।

प्रेमधर्म धर्मराज!   ।। ।।१८।।

   

इंद्रिय प्रांगणीं भोगूं विशुद्धप्रेम!।

घाणलेल्या देहीं खेचू कर्पूर धाम।

बोबड्या भक्तिगीतीं नादवूं श्रुतिसाम।

`उद्गीथतंत्र` गोरक्षाचें ।। ।।१९।।

   

दशमीस दहावा नाथावतार!

स्वर्णित भविष्याचा आविष्कार!

रत्नरंजित तत्त्वदेहाचा प्राकार।

येथ सजावटला!   ।। ।।२०।।

   

नवखंड पृथ्वी दशमावली, स्वर्लोकिली।

नवग्रह संख्या दशमांत अतिभास्वरली।

नवभक्तिभाव दशमांत सायुज्यमुक्तली।

दशदिगोत्सव हा!   ।। ।।२१।।

   

चालवा महापूजन हें अव्याहत।

बोलवा महौद्गीथ हें अप्रतिहत।

डोलवा खूण ओळखुनी गोरक्षचित्त।

धिया! श्रिया। श्रद्धया!  ।। ।।२२।।

   

जय जय! कलहंसा! तेजोबिंदो।

विशुद्धिलतेच्या गुलाब गंधो।

समाधिश्रेणीच्या उन्मन आनंदो।

जयजय! विभो! कुशलात्मन्   ।। ।।१।।

   

शृंखललेंलें बिंदुमहाद्वार।

आज खोलीन व्योमविस्तार।

रंध्रवीन आज्ञापट आरपार।

रज्जुरज्जु अर्पीन दीपमुखीं   ।। ।।२।।

   

लयावतार दृष्टविण्यास।

अधिष्ठान - इष्टिका भ्रष्टविण्यास।

पंचम आलोक षष्ठविण्यास।

थयमानली श्रीविद्या   ।। ।।३।।

   

षड्ऋतूंचे षड्भृंग सरसावले।

एकादश मासांचे मत्स्य सलिलावले।

षष्टित्रिशत किरण सामावले।

सहस्त्रार संवत्सर हें   ।। ।।४।।

   

षड्ऋतू हेचि षड्विकार।

तयांचें घटनाफल जीवसंवत्सर।

येथ कालचैतन्याचा  संभार।

लयेश्वर पूजेसांठीं   ।। ।।५।।

   

महाद्वार उघडिलें महाजनांस।

ऐश्वर्य वितरलें लोकेश्वरांस।

आदित्त्व विच्छिन्नलें नवनाथांस।

नवनवलपुर हें   ।। ।।६।।

   

`अहमस्मि` हा प्रतीतिभाव।

अज्ञानांचा सहज स्वभाव।

तयास डंखणें हा प्रभाव।

श्रीगुह्याचा   ।। ।।७।।

   

भोगा हा वृश्चिकदंश।

अहमस्मि प्रवाह पावुं द्या विनाश।

आलिंगा 'निरास्मित' अवकाश।

महाचैतन्य तें  ।। ।।८।।

   

प्रज्ञेच्या प्रभास्वर प्रकाशांत।

जाळा आनुपूर्वीचें पिकलें शेत।

गाडा संचितगृह स्मृतिदत्त।

व्हा सुस्नात चैतन्यरसीं   ।। ।।९।।

   

चैतन्याचे तोडा कल्पितानुबंध।

शुद्धस्फूर्तनें नाचूं द्या स्वच्छंद।

स्नातवा जडकर्माचें रंध्ररंध्र।

स्व-श्रीलास्यांत!:   ।। ।।१०।।

   

कर्म बुडवा प्रज्ञारसीं।

इच्छाशक्तीस पालटा महेंशीं।

उपकरणवत् विचरा जीवनकोशीं।

त्यागा `अहमस्मिता'!   ।। ।।११।।

   

स्वेच्छा शलाकांची पेटवा होळी।

स्वीकारा नाथकृपेची उफराटी झोळी।

उमगा नवनीतलेली ही साखर बोली।

आज्य अर्पा `अहमस्मितेचें!'।। ।।१२।।

   

तुमच्या भिज्ञापात्री पाऊसतील रत्ने ।

तुमच्या देहकणीं नर्ततील श्रीत उन्मनें।

तुमच्या गुहेंत नांदतील आदिचरणें।

ओळखा ऐश्वर्य झोत हा!   ।। ।।१३।।

   

दिग्गजांचे  स्थानलेले अवरोह।

लोकेश्वरांचे षोडशलेले आज्ञाभाव।

महन् महेशाची तुफानलेली नाव।

समुद्रानंतीं ललिताकारली!  ।। ।।१४।।

   

सोलंू देह देह तुझा।

बोलूं गूढ गूढ रत्नगुजा।

डोलूं उफाळूनी व्योमभुजा।

आलिंगू नाथ चरणदेशीं   ।। ।।१५।।

   

चरणदेश रत्नपीठाचें शिखर।

चरण ज्योत्स्ना अतंतावली चौफेर।

चरणतीर्थ जान्हवलें श्यामनीर

अंतर्भवलें गुलाबदाम्नीं   ।। ।।१६।।

   

नवमात्मदेह गुलाबला।

संचितप्रवाह सौभाग्यला।

अस्मिभाव आभाळला।

महत् चितींत!   ।। ।।१७।।

   

एकादश देहांत स्फुरण माझें।

आज दशमावतार विराजे!  ।

आतां विशुद्धि दुंदुभी वाजें।

मुक्तिलालितेचे पूजागृह हें!  ।। ।।१८।।

   

जीवजातांची मी शरण गाउली।

अंकागत अर्भकांची मी मायमाउली।

तृषार्त पाडसांची रानसाउली।

जीवांनो! विश्रब्ध असा!  ।। ।।१९।।

   

विदीर्णलेली माझी कंथा।

मृत्तिकलेली माझी मालमत्ता।

रश्मिलेली माझी विश्वसत्ता।

लोकेश्वरकेंद्रांत!   ।। ।।२०।।

   

झिम् झिम् नर्तली चैतन्याची सर।

मंद मंद वर्षली कृपेची पाखर ।

अल्प अल्प मुखविली महामुक्तीची साखर।

उष्टावण हें आजानुहस्तें!  ।। ।।२१।।

   

साखरस्वप्न हें गुलाब शेजेवरी।

अनुभवी सुभगलेली विशुद्धि किनरी।

अमृतकलश फुटला सहस्त्रारीं।

झराटला प्रलयशक्त्या!   ।। ।।२२।।

   

देहभावांचें येथ करा ओष्ठ।

दिक्प्रतीतींचें येथ करा संपुट।

भरभरूनि घ्या तुमचे कारणघट।

सुधावृष्टि ही!   ।। ।।२३।।

   

फेकले, झेला स्फटिकमणी।

दीपविले देखा तारक आंतर गगनीं।

फुलविली हळुवार पारखा उन्मनीं।

स्वस्थ व्हा! `राजा'श्रितांनों!  ।। ।।२४।।

   

डंवरलेला तृतीय नेत्र।

प्रळयलेल कोटिविश्व क्षेत्र।

शरणलेले कोटिजीव आश्रित।

सांभाळीन मी!   ।। ।।२५।।

   

माझ्या उन्मनींच्या स्कंधीं।

माझ्या विखुरलेल्या संदेश नादीं।

माझ्या सहस्त्रारलेल्या समाधीं।

मोक्षवीन जीवकोटी   ।। ।।२६।।

   

निष्पाद निर्देश निर्ध्यास।

चाले माझा अखंड प्रवास।

ऐसा हा निर्देह - विलास।

येथ शिदोरी नीलनिष्ठेची!  ।। ।।२७।।

   

नेसा निष्ठेचें महावस्त्र।

प्राशा प्रज्ञेचें सजलशस्त्र।

ध्यासा विशुद्धप्रेमाचे दिव्य अस्त्र।

सिद्धीकौतुकें दाखवा!   ।। ।।२८।।

   

आमुची सिद्धि साहजिका।

श्रियादत्त आमुची जीविका!।

प्रज्ञाप्राप्त् आमुची भूमिका।

शुद्धिकास्मृति ही   ।। ।।२९।।

   

आज स्पष्टला श्रीविद्याविलास।

आतां पुष्टला ब्रम्हातिशय विकास।

आणि तुष्टला चितियोगावतंस।

नि:शब्दलों मी!   ।। ।।३०।।

   

आज्ञा विशुद्धीं विठ्ठलत्त्व पाउललें!।

जीवभाव- शिवभाव तुंगभद्रलें।

ललिताशास्त्र फल्गुनदलें!।

चमत्कृति विद्या ही!   ।। ।।१।।

   

सरपटलों आम्ही सर्पिणी।

पृष्ठभाव बिंबतो वृत्तिज्ञानीं।

हृदयभाव शब्दतो श्रीध्यानीं।

फल्गुललित हें  ।। ।।२।।

   

भागां भागां आला चंद्र।

नदां नदां वाटला समुद्र।

देहा देहा वोपिलें परंभद्र!।

कुशला संसार हा!   ।। ।।३।।

   

येथली सोयरीक अतिस्नेहाळ।

येथला स्फटिक वास्तु विशाळ।

धवलगिरिश्रोतसीचे मराळ।

येथल्या श्रीत जीवसंख्या   ।। ।।४।।

   

अतिअद्भुत हा कायाकल्प।

येथ सफळल्यावरी उठता संकल्प।

श्रुत्यर्थ तो येथला सैराट जल्प!।

महाकृपेची खूण ही!    ।। ।।५।।

   

सुषुम्नेच्या सरोवरीं।

भिनली सप्त्मझरी।

`पर`लेली पश्यंती वैखरी।

नि:शब्द ललितासखी!   ।। ।।६।।

   

चैतन्य सांप्रदाय देहघटला।

विभुत्त्वभाव अंशरूपीं प्रकटला।

`एें` `क्लीं` 'श्रीं' प्रस्फुटला।

श्रीत्रिकोण हा!  ।। ।।७।।

   

अंत:संप्रदायाचें निगूढ गुह्य।

होवो कोटिजीवजातांसी सुसह्य।

सुलटा रेखाटो आमुचा अभिप्राय।

एवढी क्षुद्र अपेक्षा!  ।। ।।८।।

   

विनायकाचें न व्हावें वानर।

क्षीरोदधीचें गलिच्छ सरोवर।

महाशिव न व्हावा शवाकार।

इवली भीति!  ।। ।।९।।

   

फाटलेला आमुचा पदर।

अंधलेला आमुचा नेतर।

बोथटलेंलें आमुचें शस्तर।

आपण सांभाळा जी!   ।। ।।१०।।

   

``आम्ही यशवंत श्रीशिवराय।

दशदिशांत नटला आमुचा विजय।

आम्ही मृण्मयजीवांचे सुवर्णाश्रय।

सुवर्णदान सहजें करूं!   ।। ।।११।।    

 

नवात्मदेहाची विजयादशमी।

सुमुहूर्तली  या क्षणीं श्रीधामीं।

चा ैदेहांनी भोगिली महालक्ष्मी।

नव-नवरात्रींचा उष:काल हा!   ।। ।।१२।।

   

आम्ही नवलों, रात्रलों दशमीसाठीं।

आम्ही भागलों, त्यागलों अर्भकापाठीं।

आम्ही तिष्ठलो, ललकारलो शब्द सरस्वतीकाठीं।

प्रत्युत्तरें धाडिलीं तुम्हां!   ।। ।।१३।।

   

स्फुटतांच तुमचें आह्वान।

शबलित कर्मांचा चढलों सोपान।

शब्दपुष्पांचें जलविलें उद्यान।

कृष्णमेघवर्षाव!   ।। ।।१४।।

   

निरवस्थववा तुमचीं कर्मेंा।

विरक्तववा तुमचीं शर्मेंा।

श्यामलवा तुमचीं ब्रम्हें।

श्रीभाष्यांत या!   ।। ।।१५।।

   

क्षणक्षण प्रतीती अनंतवा।

स्मृतिभाव आशावृत्ति विलोपवा।

भूतभविष्य निरधिष्ठानवा।

वर्तमानवृत्ति महानुभवा!   ।। ।।१६।।

   

जीवन्मुक्ततेचें परमतत्त्व।

वस्तुप्रतीतीचें वर्तमानक्षणत्त्व।

चैतन्य पौर्णिेमेचें निष्कलत्त्व।

अमृतानुभव हा!  ।। ।।१७।।

   

गिरि गिरि फोडले विश्ववनिंचे।

सूर्यसूर्य प्रभातविले अनंत गगनींचे।

मुक्त मुक्त ईश्वर जन्मविले आदिभुवनिंचे।

जय जय! तुम्हां भुवनेश्वरा!  ।। ।।१८।।

   

साम्य प्रतीतींची समचरणें।

टेकीत कारणदेहीं चाललीं मुक्तेश्वरगमनें।

सूक्ष्मसरितेंत तळविलीं महाधनें।

महाचैतन्याचीं   ।। ।।१९।।

   

स्वस्ति दे! स्वस्ति दे! महाचिति!।

सुवर्णवी! सुवर्णवी! मृत्तिकाक्षिति।

साष्टांगा सावस्था शरणागति।

ब्रम्हदेहीं तुला!   ।। ।।२०।।

   

स्फटिकांत बिंबले विद्रुम।

नांदलें येथ तत्त्व सार्वभौम।

स्पर्शभूतला हेत निष्काम।

तत्त्वरत्नीं या   ।। ।।१।।

   

हृषीकेश माझी जन्ममाता!।

गुरूआज्ञा माझी मायलता।

मी नि:शब्द नाथांची संदेशवार्ता।

व्येामलहरींवर माझें आगमन ।। ।।२।।    

 

जय! गुरूशक्ति! तुझें वैभव।

अद्भुत हा तुझा गुलाबभाव।

सौरभलें कोटिजीव विश्व।

कृपया तुझ्या!   ।। ।।३।।

 

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