१४ मे
एकूण श्लोक: ५
रात्रौ ०९.५२
समन्वयाची सम्यक् समीक्षा।
अनुग्रहीतांची वेधदीक्षा।
वागग्नीची ‘रं’ वर्णकक्षा।
संविद्भू ही अक्षरोत्तमा ।। ।।१।।
संविदवीणा ही धूत-आदेश ध्वानिनी।
‘यं’ ‘मं’ ‘न’ इति श्रीकल्याण रागिणी।
चिरोत्थिता वा परात्पर कुलकुंडलिनी।
निरवस्थिति कीं अवस्थावतंसा ।। ।।२।।
‘बीजंमा’ ही स्वस्वरूपसंवेद्या।
संज्ञान शलाकांची संग्राहित संज्ञा।
परंप्रकाशिनी वा स्थिरसंचारिणी प्रज्ञा।
कैवल्यगौरा संविद्शांकरी।। ।।३।।
आज्ञाब्जाचा धवलगिरी।
रजतरसला श्रीसहस्रारीं।
अधिष्ठानाच्या अध:कैलासकुहरीं।
संवित् श्रोतसाची गंगोत्री ।। ।।४।।
पद्ममूला संविद्गता पीतश्रेणी।
विशुद्धिस्फूर्ता संवित्शलाका धवलस्वरूपिणी।
श्याम छटा श्रीब्रह्मरंध्र वियद्व्यापिनी।
त्रिवृत्-प्रणव हा संवित्सामाचा! ।। ।।५।।
रात्रौ १०.५२