उन्मनी वाङमय

२३ मे १९३९

२३ मे

एकूण श्लोक: ८

 

रात्रौ १०.१०

 

‘परिघ’ म्हणजे वृत्त्यनुवृत्तीची गुंफण।

जीव कलिकेवरि आशीर्बिंदूंचें शिंपण।

वेधदीक्षितांचे अंत:संवित् स्फुरण।

चक्राकार कुलौघ  हा!  ।। ।।१।।    

 

सहस्रारीं स्फूर्तलेला वोहळ।

अधांतरीं आधारिलेला नीलबिंबगोल।

विशुद्धींत विकसलेला अमृत बोल।

परिघमार्गें प्रवर्तला!।। ।।२।।    

 

रात्रौ १०.३०

 

परिघरेषेची परिक्रमा संपूर्णली!।

उदेली स्वयंश्रीश्यामा श्रीसंविद्उदयाचलीं।

अवतरली बिंबगर्भा सुवर्णसामराऊळीं।

सामरस्य हें संवित्श्यामेचें!।।    ।।३।।    

 

परिघाची या पाऊलवाट गुलाबी।

दीप्त्मिती बीजंमा प्रस्फुरे मध्यकेंद्रगर्भीं।

व्यासरेषेंत प्रवर्तला गंधसुरभी।

परिघ व्यांस केंद्राकारले!।। ।४।।    

 

अनुरणले बीज स्वरांचे सामवेद।

जाहला संचित कर्मच्छायांचा उच्छेद।

कुसंस्कारांस लाधतां श्रीनाथवेध।

कुलशाप अस्तमानला! ।।    ।५।।    

 

रात्रौ ११.००

 

रात्रौ ११.०५

 

देख आतां आशीर्लतांचा फुलोरा।

पाळ आतां पुण्यवैभवांचा पसारा।

सांभाळ आतां श्रीसंप्रदायसंसारा।

वंशतरूस पाणी द्या!  ।। ।।६।।    

 

परिघ हा संस्कार संततीचा ।

व्यास हा कुशल शोधन विधानाचा।

केंद्र म्हणजे श्याम बिंदू अतिअतींततेचा।

भूमितिशास्त्र हें अभौतिक  ।। ।।७।।    

 

भुवर्मिति स्वर्मिति महर्मिति।

सूक्ष्म कारण महाकारणस्थिति।

मुक्ति युक्ति आणि निरवस्थिति।

तत्र भूमिषु विनियोग:।। ।८।। रात्रौ ११.२२

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