उन्मनी वाङमय

१० डिसेंबर १९३८

१० डिसेंबर:

एकूण श्लोक: १३

 

दुपारी १२.२६

 

स्वस्ति संकर्षणि! स्वस्ति संविद्उत्तंसिनि!।

स्वस्ति कारणकाननि! स्वस्ति निरूत्थानि!।

नमस्या ते अतिथिमातर्!      ।।१।।

 

चांदल्या पौर्णिमेची सुषमा।

पूर्णल्या प्रतिभेची प्रतिमा।

शुक्लाध्यास स्फुरत्ता आदिमा।

ध्रुवध्येय तुझें!  ।।      ।।२।।

 

विश्वेदवांनों भुक्तलेंलें अन्न।

श्रिया लंकृतांनीं त्यागिलेंलें तेज अनन्य।

शेषग्रास यजमानाचा धन्यधन्य।

आणिला अतिथिसाठीं!  ।।        ।।३।।

 

 

दुपारी १२.४५

 

पश्चात् - पार्श्व तुझा रत्नखचित।

श्रीमहन् मंगलांची वर्षाधारा संतत।

कुशलावृत्तींचा अंतर्देह संस्कृत।

तुझ्यासाठीं उभवीन मी   ।।        ।।४।।

 

रजतरसांचे उफाळले ओहळ।

मरकत मण्यांची सुरू झाली ओघळ।

सुधावीचींचा उत्कर्षला कल्लोळ।

तुझ्यासाठी ‘चौरंगलें’ भान हें!   ।।    ।।५।।

 

वृत्तिवृत्तींचा प्रवृत्तिनाथ।

ज्ञानाज्ञानाचा आविष्कार विराट।

भरला प्याला श्रीसंज्ञेचा कांठोकाठ।

चौरंगलेंलें श्रीभान हें!  ।।    ।।६।।

 

दुपारी १२.५२

 

कैलासलेंलें देहरज:कण।

सन्मुखलेले ‘चमस’ नारायण।

‘बृहत्’ चारित्र्याचें संकृष्ट संकल्पन।

स्वस्ति श्रिये! सहजनारायणि! ।।      ।।७।।

 

दुपारी ०१.०३

 

प्रथमश्रेणीच्या पांथस्थांनों!

कर्मसुषुप्तींतल्या जागृत जीवांनों।

संज्ञान शलाकेनें स्पष्टल्या शावकांनों।

अभय हस्त तुम्हां!   ।।    ।।८।।

 

प्रथम श्रेणीचा या प्रथमांक।

ओळखुनि घ्या भाव त्याचा असंख्य।

माझ्या सूक्ष्मस्पर्शाचा प्रकाशलेख।

अविज्ञेय प्राकृतदृशा!   ।।      ।।९।।

 

देख, बैसले पहिल्या रांगेंत।

जीवरेणू जे श्रीसुवर्णरंजित।

भावपंडित ते श्रेष्ठी पांक्त।

अवधूतगुहेंतले! ।।        ।।१०।।

 

दुपारी ०१.१७

 

एकादश स्थानांची संकल्पसरिता।

‘इंद्रायणी’ ही संश्रवणालंकृता।

निवृत्तल्या ज्ञानैश्वर्याची भास्वरता।

स्वायंभुव स्वसाक्षित्व हें!    ।।    ।।११।।

 

कौल ‘स्वस्ति’ शब्द तुझ्या, तुम्हांसाठी।

स्वायंभुव - महास्फुल्लिंग ब्रह्मदेहपृष्ठीं।

स्वर्भाग्यांची धूत - दत्त वृष्टी।

येथ आज सासिन्नली! ।।        ।।१२ ।।

 

दुपारी ०१.२३

 

द्वादशादित्य हे प्रभातले।

निवृत्तिकुहरीं अन् माध्यान्हले।

संवित्संवर्त कीं संस्थानले!।

वषट्कारलें आज जीवभाग्य!     ।। ।।१३।।

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