उन्मनी वाङमय

महाद्वार हें श्रीनाथ गुहेचें! ।।

३०-६-३९

 

स्वस्ति श्री निवृत्ति मातर् अग्रेश्वरि!।

स्वस्तिश्री गुंगुरूमातर् - पीठेश्वरि!।

स्वस्तिश्री धुं ब्रम्हमातर् श्यामेश्वरि।

स्वस्ति श्रिये! ऱ्हीं - बीजें! ।।            ।।१।।    

 

चतुरनाथांचा संयुक्तलेला चौरंगभाव।

मित्रेश, षष्ठीश, उड्डीश, चर्यानंद- समुद्भाव।

चतुरस्त्र नाथकैवल्याचा आशीर्वर्षाव।

सद्य:क्षणीं सन्मुखला!  ।।          ।।२।।    

 

`मित्रेश' ही प्रथमा नाथपाउका।

अंतर् वियतिची सहजयान नौका।

परात्पर सूक्ष्मेंत वोपणारी प्रवेशिका।

महाद्वार हें श्रीनाथ गुहेचें! ।।            ।।३।।    

 

`षष्ठीश' हें उचललेंलें पाउल।

हळुवार वा ऐकिलेली अवधूत चाहुल।

ज्ञानाकारलेली अत्रस्था बीज माऊल।

निवृत्ति ह्यंबेने साक्षात्कुरू! ।।        ।।४।।    

 

भुकावलीं जीं लाडिक तान्हुलीं।

निवृत्ति ह्रंबेनें बीजस्तनीं ओष्ठविलीं।

'शांता' अवस्थेच्या पदराआड तुरीयस्थलीं।

मातृस्वरूप येथ प्रत्यक्षवा! ।।            ।।५।।    

 

``उड्डीशांचें तृतीय स्थंडिल सु-वर्णाकार।

येथ कर्पूरगौर `रं' बीजतत्वाचा साक्षात्कार।

'धर्ममेघ' - नि:स्यंदिनीची संततधार।

'उड्डीश' हें 'स्फुरत्ता प्रतीक! ।।                  ।।६।।    

 

श्रीचर्यानंदाचा विभूतिकाय।

'शं' विभुत्वाचा केंद्रित आशीर्दाय।    

बीजलेकुरांची क्षीरदा श्रीमत्समाय।

संप्रदायार्थ हा श्रीनाथचातुष्ट्याचा  ।।      ।।७।।       

 

श्रीचर्यानंदाचें भास्स्वर प्रतीक।

श्रीश्यामस्फुरत्तेचा संविद्प्रकाशलेख।

निराकार आकाशलिंगाची सहज फेक

तुरीय कौतुक हें नाथचातुष्ट्याचें ।।              ।।८।।    

 

झरलेले सूक्ष्म मौक्तिक निर्झर।

उडलेले अदृश्य कृपातुषार।

व्यक्तलेला संयुक्त श्रीनवसहजसंचार।

आदिपौर्णिमेस सिद्धला  ।।        ।।९।।  

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